Author(s): श्रीमती रश्मि कुशवाह

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DOI: Not Available

Address: श्रीमती रश्मि कुशवाह
शोधार्थी (संस्कृत), शोध अध्ययन केन्द्र, शा. स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय दतिया म. प.
*Corresponding Author

Published In:   Volume - 5,      Issue - 4,     Year - 2014


ABSTRACT:
भारतीय संस्कृति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण सामाजिक विशेषता वर्ण व्यवस्था हैं। वर्ण व्यवस्था का प्रारम्भ ़ऋग्वेद के समय सें ही हुआ हैं । ऋग्वेद के पुरूष सूक्त में एक मन्त्र द्वारा ब्राह्मणादि वर्णो के स्थान का निर्धारण किया गया है। इसके अनुसार ब्राह्मण को परम् पुरूष का मुख , क्षत्रिय को बाहु वैश्य को उरू तथा शूद्र को चरण बताया गया हैं । 1 इससे स्पष्ट होता है कि आर्यांे की वर्ण व्यवस्था अत्यंत ही प्राचीन है। वर्ण व्यवस्था भारतीय संस्कुति का अत्यन्त प्राचीन अंग है । इसके प्रति वैदिक युग से आज तक बराबर श्रद्धाभाव चला आ रहा है । हमारी सामाजिक व्यवस्था का आधार ही यह वर्ण व्यवस्था है । बौद्ध धर्म ने इसी व्यवस्था को नष्ट करने का प्रयत्न किया था और वैदिक धर्म के पुनरूत्थान के साथ इसका भी पुनरूत्थान हुआ । बराहमिहिर ने अपनी वृहत्संहिता में कहा है कि नगर में ब्राह्मणांे,क्षत्रिया,ें वैश्यों और शूद्रांे के निवास स्थान निश्चिित थे । ह्वेन्त्सांग ने भी चारों वर्णांे का उल्लेख एवं उनके कार्यकलापों का विवरण दिया है। स्मृतियों के अनुसार प्रत्येक वर्ण के कर्म निश्चिित थे किन्तु बाण के युग तक आते आते वर्ण व्यवस्था में कुछ शिथिलता आ गई थी। एक वर्ण के लोग दूसरे वर्ण के कर्म को अपनाने लगे थे। ह्वेन्त्सांग ने ब्राह्मण कृषक का उल्लेख किया है। 2 तथा दशकुमारचरित में ब्राह्मण डाकुओं की बस्ती का उल्लेख है। 3 किन्तु वर्णाश्रम धर्म के विरूद्ध आचरण अपवाद स्वरूप ही था। अधिकांशतरू लोग वर्णव्यवस्था के अनुसार ही कर्म करते थे ।


Cite this article:
श्रीमती रश्मि कुशवाह. कादम्बरी में वर्ण व्यवस्था. Research J. Humanities and Social Sciences. 5(4): October-December, 2014, 466-469

Cite(Electronic):
श्रीमती रश्मि कुशवाह. कादम्बरी में वर्ण व्यवस्था. Research J. Humanities and Social Sciences. 5(4): October-December, 2014, 466-469   Available on: https://rjhssonline.com/AbstractView.aspx?PID=2014-5-4-19


सन्दर्भ                                             
(1)  ब्राह्मणोंऽस्य इत्यादि ऋग्वेद  - 10ध्90ध्12
(2)  हर्षवर्द्धन - श्री गौरीशंकर चटर्जी - 181(संस्करण  -1938 )
(3)  दशकुमार चरित -टीकाकार -श्री विश्वनाथ झा पृष्ठ  -71, 72, संस्करण -1966
(4)  हर्षचरित प्रथम उच्छवास -पृष्ठ -19- काणे संस्करण
(5)  हर्षचरित प्रथम उच्छवास - पृष्ठ  -4
(6)  श्रीमदभगवद्गीता - 18ध्42
(7)  हर्षचरित प्रथम उच्छवास- पृष्ठ - 18
(8)  जाबालि वर्णन कादम्बरी
(9)  आॅन युवानच्वांग्स टेªवल्स इन इण्डिया वाटर्स- प्रथम भाग - पृष्ठ  -140- संस्करण- 1961
(10) ब्राह्मणोऽस्मि जातः सोमपायिनां वंशे वात्स्यायनानाम्- हर्षचरित द्वितीय उच्छवास- पृष्ठ  -36
(11) हर्षचरित- चतुर्थ उच्छवास
(12) श्रीमद्भागवत - 11ध्17ध्17
(13) श्रीमद्भागवत  - 11ध्17ध्18
(14) श्रीमद्भागवत - 11ध्17ध्15
(15) हर्षचरित तृतीय उच्छवास - पृष्ठ  -44
(16) वणिगत स्करः- हर्षचरित षष्ठ  उच्छवास
(17) आॅन युवानच्वांग्स टेªवल्स इन इण्डिया वाटर्स- प्रथम भाग - पृष्ठ -168- संस्करण- 1961
(18) श्रीमद्भागवत - 11ध्17ध्19
(19) श्रीमद्भगवत गीता - 18ध्44
(20) हर्षचरित सप्तम उच्छवास पृष्ठ -68
(21) कादम्बरी - पृष्ठ  -29
(22) अमूर्तामिव स्पर्शवर्जिताम आलेख्य - कादम्बरी पृष्ठ  -34
(23) कादम्बरी - पृष्ठ  -34
(24) मातंगकुल दूषिताम्-  कादम्बरी - पृष्ठ - 34
(25) स्पर्श- सम्भोग -सुखे कृतं कुले जन्म -कादम्बरी पृष्ठ - 35
(26) शबर जाति का वर्णन -कादम्बरी - पृष्ठ - 66

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