ABSTRACT:
धर्म का वास्तविक स्वरुप क्षेत्र और उसका मानव जीवन में स्थान आदि विषयों का निरुपण तब-तक पूर्ण नही हो पाता जब-तक कि यह न जान लिया जाए कि धर्म की उत्पत्ति और विकास कैसे और किन-किन परिस्थितियों में हुआ। धर्म की उत्पत्ति और विकास की समस्या धर्म और दर्शन की समस्याओं में से एक प्रमुख समस्या है । धर्म दर्शन उन प्रश्नों पर विचार करता है कि मनष्ुय क्यों और कैसे धार्मिक बना ? धर्म का यह आधुनिक एवं सर्वोच्च रुप क्यों और कैसे प्राप्त हुआ ? किन-किन रुपों में धर्म इस स्थिति तक पहुंच सका ? आदिम और अविकसित धर्म तथा आधुनिक प्रगतिशील विश्व धर्म में क्या अंतर है ? वे कौन-कौन से तत्व है जिनके कारण मनुष्य धार्मिक बनता है ? इसी परिप्रेक्ष्य में यदि हम इस विषय की चर्चा का शुभारंभ आदिम समाज में धर्म एवं उसकी विशेषताओं के साथ करें तो यह ज्यादा सार्थक होगा। आदिमानव के मन में एक प्रश्न रहा होगा कि निद्रावस्था या मृतवस्था में पर्याप्त समानता होने पर भी निद्रावस्था मृत्यु जैसी क्यों नहीं है? स्वप्न में शरीर से कोई शक्ति निकलकर विभिन्न स्थानों पर जाती है, विभिन्न मृत एवं जीवित व्यक्तियों से मिलती है और नींद टूटने पर पुनः लौट आती है। मृत अवस्था में भी शरीर से कोई शक्ति निकलती है जो शरीर को निष्क्रिय कर देती है, परन्तु वह पुनः नहीं लौटती है। इससे आदिम मानव ने यह निष्कर्ष निकाला होगा कि प्रथम मुक्त आत्मा जो मनुष्य के शरीर से बाहर जा सकती है और हर तरह के अनुभव करके पुनः लौट आती है। दूसरी शरीर आत्मा ;इवकल ैवनसद्ध जो एक बार शरीर छोड़कर चली जाती है तो पुनः लौटकर नहीं आती और मनुष्य मर जाता है और उसकी आत्मा भूत या प्रेतआत्मा बन जाती है-यह आत्मा अमर है, यदि ऐसा नहीं होता तो बहुत समय पूर्व मरे व्यक्ति स्वप्न में कैसे और क्यों दिखाई देता? इस प्रकार टाॅयलर (1871) के उपर्युक्त मतानुसार इन अमूर्त और अभौतिक प्रेतात्माओं के प्रति भय एवं श्रद्धा ही आदिम धर्म का मूल है। अतः यह धारणा विकसित हुई कि आत्माएं मानव नियंत्रण से परे हैं, परन्तु ये मनुष्य से संबंध रखती है। इसके अच्छे कार्यों से ये प्रसन्न होती है, तथा बुरे कार्यों से अप्रसन्न होती है।
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महेन्द्र कुमार प्रेमी. धर्म की उत्पत्ति एवं विकास: एक दर्शनष्शास्त्रीय विवेचन. Research J. Humanities and Social Sciences. 3(1): Jan- March, 2012, 6-10.
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महेन्द्र कुमार प्रेमी. धर्म की उत्पत्ति एवं विकास: एक दर्शनष्शास्त्रीय विवेचन. Research J. Humanities and Social Sciences. 3(1): Jan- March, 2012, 6-10. Available on: https://rjhssonline.com/AbstractView.aspx?PID=2012-3-1-2
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