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शिवजी सिंह
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शिवजी सिंह
शोध-विद्यार्थी, इतिहास विभाग, बी.आर.ए. बिहार विश्वविद्यालय, मुजफरपुर।
*Corresponding Author
Published In:
Volume - 5,
Issue - 1,
Year - 2014
ABSTRACT:
भारतीय समाज की जाति व्यवस्था एक जटिल एवं सप्रभावी विशिष्टतता है। यद्यपि इसकि उत्पत्ति प्रारंभिक समाजिक व्यवस्था में दृष्टिगोचर नहीं होता तथापि यह सामाजिक व्यवस्था के विकास के साथ हीं अपने वास्तविक स्वरूप; जन्म के आधर परद्ध उदित होता गया। प्रारम्भिक समाज में खास कर प्रागैतिहासिक एवं आद्य ऐतिहासिक काल में इसके जाति व्सवस्था का कोइ प्रमाण नहीं मिलता क्योंकि तब समाज कबिलाइ समाज थी।) ग्वैदिक काल; 1500-1000 ई. पू.द्ध में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख )ग्वेद के 10वें मण्डल में मिलता है।1 जहाँ विराट पुरूष के मुख से ब्राहम्ण, बाहु से क्षत्रिय, जांघ से वैश्य तथा पद से शूद का उत्पन्न बताया गया है। इस काल में व्यक्तियों का वर्ण जन्म के आधर पर न होकर कर्म के आधर पर था। लेकिन कलांतर में बड़े राज्यों के उदय के साथ हीं वर्ण व्यवस्था जटिल होती चली गई, अब वर्ण कर्म के आधर पर न होकर जन्म के आधर पर माना जाने लगा तथा हिन्दू समाज अनेक समूहों में विभक्त हो गया और यह जाति-व्यवस्था के स्वरूप में परिवर्तित हो गया। इन जातियों का रहन-सहन, स्तर, व्यवहार और आचरण में सम्यक अंतर है इस संस्थाओ में अनेकानेक निषेध, प्रतिबंध, कठोरता और जटिलताएँ है। किन्तु पिफर भी इस संस्था का तारतम्य और सौष्ठव बराबर बना रहा है। यद्यपि इसके विकसित होने में सैकड़ों वर्ष लगे हैं, तथापि समय-समय पर होने वाले परिवर्तन, प्रादेशिक उलट-पफेर, विदेशी आक्रमण, विभिन्न व्यवसायिक गतिविध्यिा, प्रारस्परिक अन्तरताएँ तथा वर्ण-विरू (विवाह आदि अनेक तत्वों ने इसके विस्तार में महत्वपूर्ण योग प्रदान किया।2
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शिवजी सिंह. भारतीय समाज एवं जाति व्यवस्था. Research J. Humanities and Social Sciences. 5(1): January-March, 2014, 5-9.
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शिवजी सिंह. भारतीय समाज एवं जाति व्यवस्था. Research J. Humanities and Social Sciences. 5(1): January-March, 2014, 5-9. Available on: https://rjhssonline.com/AbstractView.aspx?PID=2014-5-1-2
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