कर्मयोगी संत कबीर के जीवन मूल्य

 

बृजेन्द्र पाण्डेय

सहायक प्राध्यापक, मानव संसाधन विकास केन्द्र, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर

 

 

आज से लगभग 6 सौ वर्ष पूर्व भारत में एक ऐसी ओजस्वी प्रतिभा संपन्न विभूति का आविर्भाव हुुआ जिसने हाथ में मशाल लेकर जर्जरित विश्रृंखलित रूढ़ियों से ग्रस्त मृतप्राय समाज को ज्ञान का आलोक प्रदान किया । निजी जीवन की परवाह न करते हुए स्वयं को नैतिक आदर्श और सामाजिक न्याय की स्थापना हेतु पूर्णतः समर्पित कर दिया । ऐसी बहुआयामी प्रतिभा के धनी कबीर दास के व्यक्तित्व एवं उनकी वाणियों में अभिव्यक्त उनकी विचारधारा के आधार पर अधिकांशतः आलोचकों ने उन्हें संत, क्रांतिकारी, समाज सुधारक, युग चेता, युग प्रवर्तक, विद्रोही, अक्खड़, उदण्ड स्वभाव से युक्त, आत्मज्ञानी आदि विशेषणों से विभूषित किया है । ये सभी विशेषण सार्थक एवं साभिप्राय हैं इनके साथ - साथ कबीर दास का एक कर्मयोगीका रूप भी है जिसकी ओर सामान्यतः कबीर के अध्येताओं एवं आलोचकों का ध्यान कम ही जाता है या उन्होंने गंभीरता से इस पर विचार, मनन ही नहीं किया हैं ।

 

उन्होनंे आजीवन कर्मशील जीवन व्यतीत किया और कर्मण्यता का ही संदेश दिया । कर्मण्यता उनका आदर्श नहीं था बल्कि उनके दैनिक व्यवहार का एक अंग था, आजीवन अपना कर्म करते हुए किस प्रकार हृदय में भगवत् भक्ति को धारण किया जा सकता है इसका प्रत्यद्वक्ष उदाहरण समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया । कबीर बहुश्रुत थे । उन्होंने जो भी सामाजिक विसंगतियों समाज में देखी उस पर तीखा प्रहार किया ।

 

कबीर ने जनता में प्रचलित आडम्बरों और अंधविश्वासों का भाण्डाफोड़ किया और साथ ही कर्मयोगी का रास्ता अपनाया । उन्होंने हिन्दू - मुस्लिम दोनों संस्कृतियों के मूलभूत सिद्धांतो को स्वीकार कर आडम्बरों का खण्डन किया । मध्यकाल में धर्म ही मनुष्य के समस्त कार्य - व्यापारों का नियामक था । सामन्ती समाज का यही स्वीकृत विधान था । सर्व - साधारण की आर्थिक, सामाजिक गुलामी के बंधनों को और कठोर बनाने के लिए विधि-विधान, तीर्थाटन, स्थान, वेद पाठ, ब्रतोद्यापन, छुआछूत, अवतारोपासना, कर्मकाण्ड अदि बाह्याचारों की श्रृंखला को और जटिल तथ्ज्ञा सर्वसाधारण के लिए दुरभिसाध्य और कठोर बनाया जाता था ।

 

 

 

इस युग में समस्त जन - आंदोलनों का वाह्य रूप धार्मिक था । प्रगतिशील जन नेता मनीषी धर्म के नाम पर ही मानव मुक्ति और मानव मात्र की समानता और एकता पर जोर देते थे और उन तमाम सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों, अंधविश्वासों, साम्प्रदायिक कट्रताओं, वाह्या आचार और कर्मकाण्ड पर खुलकर आक्रमण करते थे, जिनका आश्रय लेकर उच्च वग्र और उच्च जातियां सर्व साधारण का शोषण, दोहन करती थी । कबीर दास ने कर्म को महत्व देते हुए कहा है -

 

पाहन पूजै हरि मिलैं तो मैं पूजौं पहार ।

ताते यह चाकी भली पीस खाय संसार ।।ण्

 

इससे घ्वनित होता है कि कबीरदास जी जाँता और चकरी को ज्यादा महत्व देते थे क्योंकि उसमें गेहूं पीसा जाता था और पत्थर पूजने से अच्छा है जाँता और चक्की को पूजना, अर्थात् कबीरदास कर्म पर ज्यादा जोर देेते थे लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आलोचकों का ध्यान कर्मयोगी कबीर पर कम ही गया है जब कि अन्य पक्ष पर गया है ।

 

कबीरदास तो विवेकपूर्ण, प्रतिभा संपन्न संत थे । उन्होंने समाज की इस प्रवृत्ति को अनुभव किया और समाज के कल्याणार्थ, समाज मंे संतुलन लाने के लिए प्रवृति तथा निवृत्ति में राग और विराग में, भोग उत्तरदायित्वों से मुह मोड़ कर संन्यास धारण कर, वन में रहने वालों की उन्होंने कड़ी भत्र्सना की इसके लिए तो वह जनक को आदर्श मानते हैं । खुद गृहस्थ जीवन बिताते हुए अपने कर्म करते हुए उन्होनं संसारिक विरक्ति को धारण किया । यह सही है कि आध्यात्मिक जीवनकी तुलना में सांसारिक संबंधों और भौतिक समृद्धि को निस्सार समजा जाता है फिर भी भारतीय संस्कृति मानव जीवन के प्रति एकांगी दृष्टिाकोण नहीं अपनाती व्यवहारिक यथार्थता को वह महत्व देती है यही कारण है कि मनुस्मृति में चारों आश्रमों में से गृहस्थाश्रम को सभी आश्रम धर्मों का आधार माना गया है तथा धर्मानुसार अर्थ व काम का उपभोग करते हुए भी स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति केवल इसी आश्रम में स्वीकार की गई है । भौतिक जगत के प्रति विरक्ति का दृष्टिकोण रखते हुए भी कबीरदास ने गृहस्थ जीवन को उपेक्षित दृष्टि से नहीं देखा । उनका दृष्टिकोण व्यावहारिक था । समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिए गृहस्थ जीवन की महत्ता को उन्होनें जाना था । यही कारण था कि उन्होनंे घर छोड़कर वन जाने वालों की निंदा की और घर में ही रहकर परमांनद प्राप्ति की कामना की । उदाहरण के लिए-

 

घर तजि बन बाहरि कियौं बास,

घर बन देखौं दोऊ निराम ।

जहाँ जाऊं तहां सोक संताप,

जुरा मरण की अधिक वियाप ।

कहै कबीर चरन तोहि बंदा,

घर मैं घर दे परमानंदा ।।

 

कबीरदास का मत है कि अगर व्यक्ति वैरागी है तो उसमें सच्ची विरक्ति की भावना होनी चाहिए और यदि गृहस्थ है तो उसमें उदारता होनी चाहिए । जो इन दोनों से चूक जाते हैं, उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है ।

 

वैरागी विरकत भला, गिरही चित्त उदार ।

दुहूं चूका रीता पड़ै, ताकूं बार न पार ।।

 

कबीर संसार छौड़ने की बात कभी नहीं कहतें हैं । उनका तो निच्श्रित मत थ कि अपने कत्र्तव्यांग का निर्वाह करते हुए सच्ची भक्ति हो सकती है । गृहस्थ के कत्र्तव्यों एंव धम्र से विमुख मत बनो अन्यथा राजा राम रूष्ट हो जायोंगे -

 

घर छौंड़ै जिनि बाहरि जाँई ।

नहिं तर खरौ निसावै राई ।।

 

वैराग्य और गृहस्थ में स्था और भेष का महत्व नहीं है, बल्कि महत्व है जीवन पद्धति का - जीने के ढंग का । एक भेष से साधु होते हुए भी गृहस्थ सदृश हैं - यदि वह तृष्णायुक्त एवं चिंतायुक्त है और एक गृहस्थ वैरागी साधु-संत है यदि वह चिंतामुक्त और अनासक्त है कबीर का विश्वास है कि गृह  में वैराग्य भाव संभव है ।

 

इक वैरागी गृह में ।

इक गृही में वैराग ।।

 

कबीरदास के विचारों में अर्थ व्यवस्था तो इस प्रकार होनी चाहिए कि उसका प्रत्येक व्यक्ति सादा जीवन उच्च विचार वाला हो जाय । यदि जीवन में भिन्नता बनी रहेगी तो समाज की स्थिति कभी भी शांतिपूर्ण नहीं रह सकती । कबीर का निच्श्रित मत है कि संत यदि आसक्ति पूर्ण अवस्था में परिणत हो गया तो उसका जीवन व्यर्थ है । समाज में सभी परिश्रम करके उत्पादन करें, जीवन - स्तर समान हो, स्वार्थ, लोभ, मोह का परित्यग कर सभी परस्पर कल्याणकारी भावना से कर्मनिष्ठ हो जांए तथा पारस्परिक सहकार के द्वारा जीवन यापन करें तो ऐसे समय में ऐसे समाज में भेद - बुद्धि पनप ही नहीं सकती । कबीर के समय में हिंदू - मुस्लिम वैमनस्य चल ही रहा था, ऊंच - नीच के भाव भी पनप रहे थे । अतः उन्होनें सर्वप्रथम राम - रहीम की एकता स्थापित की । दोनों ही संप्रदायों में भयंकर कट्रता के भाव भरे थे जिन्हें दूर करने के लिए दोनों जातियों को कबीर ने फटकार लगाई और उनकी अंधपरंपराओं का उपहास किया -

 

काँकरि पाथरि जोरि कैं, मसंजिद लेई चुनाय ।

ता चढ़ि मुल्ला बाँगि दे बहिरा हुआ खुदाय ।।

 

कबीर ने साधना के बाहरी स्वरूप का भी विरोध किया । वे जप-तप आदि को व्यर्थ समझते थे उनके विचार से हृदय की शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है । हृदय की साधना ही वास्तविक साधना है । इसी से तो वे कहते थे कि ‘‘कर का मनका छाड़ि दे मनका मनका फेर‘‘ कबीर ने मोक्ष प्राप्ति के लिए वेदाध्ययन तथा अन्यान्य कर्मकाण्ड के विधानों का प्रयोग आवश्यक नहीं समझा । उनका तो मत था -

 

 

पोभी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय ।।

 

कबीर के उपदेशों का प्रभाव निम्नवर्गीय व्यक्तियों पर विशेष पड़ा अतः उन लोगों के बीच कबीर पंथनाम का एक पंथ ही चल निकला । वे बड़े अक्खड़ एवं स्वतंत्र विचार के कर्मयोगी थे । पुत्र कमाल के उत्पन्न होने पर कबीर की प्रतिक्रिया थी -

 

बूड़ा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल ।

हरि का सुमिरन छांड़ि के, घर ले आया माल ।।

 

वे हिंदू तथा मुलसमानों में कोई भेद नहीं समझाते थे अतएव इन्होनंे हिंदू तथा मुलसमानों में प्रचलित आडम्बरों, तीर्थ और अवतारवाद का डटकर विरोध किया है -

 

अरे इन दोडन राह न पाई ।

हिंदू अपनी करै बड़ाई, गागर छूवन न देई ।

वेश्या के पाइन तर सोवै, यह देखों हिंदुवाई ।

मुसलमान के पीर औलिया, मुरगी मुरगा खाई ।

खाला केरी बेटी ब्याहै, घरहिं मंे करै सगाई ।

 

इसके अलावा कबीर दास ने मानव जीवन की जीवनचर्या से संबंध रखने वाले उपदेश भी दिये हैं -

 

कथनी मीठी खाँड़ सी करनी विष की लोय ।

कथनी तज करनी करैं, विष से अमृत होय ।।

 

कबीरदास ने कर्मवाद का कितना सटीक उदाहरण प्रस्तुत किया है-

 

काहे के ताना, काहे के भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया

इंगला - पिंगला ताना भरनी, सुषमन तार से बीनी चदरिया

 

कबीर की तीसरी प्रकार की रहस्यमय भावनायों उन रचनाओं में मिलती हैं जिनमें परंपरा को प्राप्त कर तन्मय हो जाते हैं ।

 

लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल ।

लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल ।।

 

कबीर में कर्म और रहस्य के दर्शन भरे पड़े हैं । कहीं उन्होंने रहस्यवाद की अभिव्यक्ति की है तो कहीं कर्मवाद की जैसे -

 

अकथ कहानी प्रेम की कछू कही न जाइ ।

गूंगे केरी सरकरा खाए अरू मुसकाई ।।

 

डाॅ. श्याम सुंदर दास का कथन इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि भारतीय रहस्यवाद की विशेषता सर्वात्मवादमूलक होने में जो भारतीयों की ब्रह्य जिज्ञासा का मूल है । जिज्ञासु जब ज्ञानी की कोटि में पहुंच कर कवि भी होना चाहता है तो अवश्य ही रहस्यवाद की ओर झुकता है । चिंतन के क्षेत्र का ब्रह्यवाद कविता के क्षेत्र में पहुंच कर कवि भी होना चाहता है तो अवश्य ही रहस्यवाद की ओर झुकता है । चिंतन के क्षेत्र का ब्रह्यवाद कविता के क्षेत्र मंे जाकर कल्पना और भावुकता का आधार पाकर इस रहस्यवाद का रूप पकड़ता है । यह परमात्मा के साथ सारी सृष्टि का अखण्ड संबंध देखता है । कबीर में इसी रहस्यवाद की प्रधानता है ।

 

सर्वात्मवाद मूलक कर्मवाद में कर्म भाव की ही प्रधानता होती है । रहस्यवादी इस आध्यात्मिक तत्व की अनुभूति पे्रम भावना द्वारा करता है-

 

‘‘कछु करनी, कछु करम गति, कछु पुरबला लेख‘‘

 

कबीर की कविता मुख देखी बात न होकर स्पष्ट कंठ से की गई धार्मिक और सामाजिक विवेचना थी । वे सत्य के अन्वेषक थे और जीवन में सदैव सत्य के नए प्रयोग करते रहे थे । डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य की भूमिकालिखकर कबीर की पहचान कराई । डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, ‘‘उन्होंने कविता के लिए कविता नहीं लिखी वह अपने आप हो गई ।‘‘

 

कबीर दास ने जीवन के अर्थ को समझाने के लिए उलटवासियों को प्रयोग किया था ।

 

बरसे कम्बल भींजत पानी

 

कम्बल बरस रहा है और पानी भींग रहा है

इसके अलावा

 

इक अचरज देखा रे भाई

ठाड़ा सिंह बरावै गाई ।

 

डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कबीर के लिए लिखा है कि ‘‘वे मुसलमान नहीं थे । हिंदू होकर भी हिन्दू नहीं थे । साधु होकर भी अगृहस्थ नहीं थे । वे वैष्णव होकर भी वैष्णव नहीं थे, वे योगी होकर भी योगी नहीं थे । वे भगवान के नरसिंहावतार की मानव प्रतिमूर्ति थे नरसिंह की भांति वे असम्भव समझी जाने वाली परिस्थितियों के मिलन बिन्दु पर अवतीर्ण हुए थे, जहां एक ओर ज्ञान निकल जाता है और दूसरी और भक्ति मार्ग ।‘‘

 

कबीर काल में संन्यासियों की दशा पतनोन्मुख हो चुकी थी । ऐसे संन्यासी वेशधारियों की कमी न थी जो दूसरों को ज्ञान का उपदेश देते हुए भी स्वयं उससे कोसों दूर थे । निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर, पूर्ण संन्यास वृत्ति को धारण करके लोक कल्याण का व्रत लेने वाला संन्यासी वर्ग अपने आदर्श से गिर चुका था । कबीर ने ऐसे ढोंगी वेषधारी संन्यासियों की तुलना पिंजरे में बंद तोते से की है ।

 

चतुराई सूवै पढ़ी, सोई पंजर मांहि ।

फिरि परमोधै आन को, आपन समझै नाहिं ।

 

कबीरदास ने स्वधर्म पर बल दिया चाहे वह धर्म ब्रह्यचारी का हो, गृहस्थ का धर्म हो अथवा संन्यासी का, उनका तो स्पष्ट कथन है कि वैरागी और गृहस्थ होना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्व है अपने - अपने कत्र्तव्य पालन में प्रमाद का न होना । धर्म से विमुख व्यक्ति रीताहै उसका विनाश ही समझना चाहिए । कबीरदास निष्काम कर्म को ही सहज कर्मकी संज्ञा देते हैं  समस्त कर्म ईश्वर को समर्पित करके ही करने चाहिए - जो कीजिए हरि हेत । सभी कर्मों को निष्काम भाव से भगवत समर्पित करने पर कर्म संज्ञा नष्ट हो जाती है और वे अर्पित कर्म भगवत धर्म कहलाते हैं, जो बाधक न होकर मोचक हो जाते हैं । कबीर स्वयं भी एक ही समय वों आसक्त और विरक्त थे । एक ही साथ गृहस्थ एंव संन्यासी थे । वे गृहस्थ में विरक्त भाव से रहने को ही सबसे पवित्र कर्म मानते हैं । जो उस परम ज्योति के महामिलन का हेतु बन जाता  है ।

 

संत कबीर जब कर्मण्यता की बात कहते हैं तो वह यह भी स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य को किस प्रकार के कर्म करने चाहिए । कर्म दो प्रकार के माने गए हैं - 1. शुभ कर्म, 2. अशुभ कर्म । मानसिक विकारों को दूर करने वाले, चित्त एवं बुद्धि को निर्मल बनाने वाले कर्म ही शुभ कर्म कहलाते हैं । कबीर का साध्य ईश्वर भक्ति है । वे उन्हीं कर्मों को स्वीकार करते हैं और शुभ कर्म मानते हैं जो भक्ति की प्राप्ति में सहायक हैं या भक्ति के अंग हैं । नाम स्मरण, गुरू सेवा इनकी दृष्टि में शुभ कर्म हैं दया, क्षमा, सत्य, उदारता, सहिष्णुता आदि सात्विक भावों से प्रेरित होकर किए गए जनहितार्थ कर्म ही शुभकर्म हैं । कबीर ने अनेक संदर्भों में, अनेक बार प्रभु भक्ति नाम स्मरण, गुरू सेवा जल में कमलवत् संसार में निर्लिप्त भाव से जीवन - यापन करना, अहं बुद्धि के परित्यागयुक्त किए गए कर्म को शुभ कर्म माना है इसके विपरीत जो कर्म भक्ति एंव ज्ञान की प्राप्ति में बाधक हैं, उन्हें अशुभ कहा हैं । जिन कर्मों के कारण माया प्रभाव शालिनी बनती है, मनुष्य को आवागमन के चक्र में भटकना पड़ता हैं, जो आत्म कल्याण और जनकल्याण के विरूद्ध हैं, वे सभी अशुभ कर्म हैं । कबीरदास ने अशुभ कर्मों को परित्याज्य एवं मानव - कल्याण में बाधक मानकर भत्र्सना की है तथा उनका त्याग करने के लिए कहा है एवं शुभ कर्मों को श्रेष्ठ मानते हुए उनकी ओर प्रवृत्त होने का उपदेश दिया है । कबीरदास कर्म करना इन्द्रियों का धर्म मानते हैं एवं निरासक्त भाव से आजीवन शुभ कर्म करते रहने का उपदेश देते हैं ।

 

कबीरदास ने अपनी बानियों में कर्मकाण्ड का खण्डन किया है । डाॅ. राम कुमार वर्मा ने कबीर के बारे में लिखा है हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की साम्द्रदायिक सीमा को तोड़कर उन्हें एक ही भावधारा में बहा ले जाने का अपूर्व बल कबीर के काव्य में था अपने स्वाधीन और निर्भीक विचारों से उन्होंने सुधार के नवीन मार्ग की ओर संकेत किया । उनकी समदृष्टि ने उन्हें सार्वजनिक और सार्वभौमिक बना दिया ।

 

डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेबी ने कबीर ने कर्मयोगी दृष्टि के महत्व को प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि युग का प्रतिनिधि अथवा लोकलायक उसे माना जा सकता है, जो विभिन्न विरोधों में समन्वय स्थापित कर सके । हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तिव लेकर कोई कवि उत्पन्न नहीं हुआ । साहित्य में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वन्द्वी तुलसीदास का आता है । मस्ती, फक्कड़ाना स्वभाव और सबको झाड़ - फटकार कर चल देने वाले तेज ने कबीर को हिंदी साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया ।

 

कर्मकाण्ड से उनका अभिप्रया साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड से था- साम्प्रदायिक कर्मकाण्डों के प्रति उनकी बिल्कुल आस्था नहीं थी । मीमांसकों के कर्मकाण्ड और वैधी भक्ति के बाह्याडंबरों का भी उन्होनंे खंडन किया तथा पंडितों एवं मुल्लाओं को कर्म के जाल में भटक रहे, बतलाया है । इस प्रकार कबीर ने अकर्मण्यता का क्रियात्मक विरोध कर कर्मण्यता कों भगवत प्राप्ति में सहायक बताया है । कर्मण्य जीवन का संदेश देने वाले कबीर दास ने अपने जीवन को जिस प्रकार आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है वह कोई सच्चा कर्मयोगी ही कर सकता है । इस प्रकार कबीर सच्चे अर्थों में एक कर्मयोगी थे जिनके जीवन से आज भी समाज को कर्मण्यता की प्रेरणा मिलती है । यही संदेश हमें भगवत्गीता भी देती है -

 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्

इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्मयोगी कबीरदास ने स्पष्ट घोषणा कर दी है-

 

मसि कागद् छूयो नहिं कलम गह्यो नहिं हाथ

इसका सीधा तात्पर्य है कि कबीरदास पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन बहुश्रुत थे। जिस प्रकार गीता हमें निष्काम कर्म का संदेश देती है उसी प्रकार कबीरदास का काव्य हमें कर्मोन्मुख कर्मयोगी का संदेश देती है और वह भी गृहस्थ जीवन बिताते हुए । यह देखकर आच्श्रर्य होता है कि सभी चीजों का निर्वाह करते हुए कबीर दास ने जीवन में कर्मयोगी दृष्टि दी ।

 

संदर्भ गृन्थ सूची

1)   कबीर की विचारधारा - डाॅ गोविन्द त्रिगुणायत पृ 318

2)   शोध प्रबंध- संत औश्र सूफी साहित्य मे नैतिक तत्व श्रीमती सविता श्रीवास्तव ।

3)   कबीर का सामाजिक दर्शन -पृष्ठ-117 डाॅ. प्रहलाद भौर्य

4)   कबीर गंृशावली - पृष्ठ- 104

5)   युग दृष्ठा कवि कबीर, पृ. 40, अवधेश प्रसार सिंह केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा ।

6)   सदगुरू कबीर साने प्योनिधि पृ. 188 - आचार्य गृधमुनि नाम साहब ।

7)   कबीर और कबीर पंथ, पृ. 153 डाॅ केदार नाथ   द्धिवेदी ।

8)   कबीर पंथ का उद्भव एंव प्रसार पृ. 62- डाॅ राजेन्द्र प्रसाद ।

 

 

Received on 22.05.2015

Modified on 08.06.2015

Accepted on 05.08.2015

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Research J. Humanities and Social Sciences. 6(3): July- September, 2015, 169-174