छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद: ऐतिहासिक अवधारणा
तिहारू राम बघेल
शिक्षक, पंचायत एवं गा्रमीण विकास विभाग, रायपुर छ.ग.
माक्र्सवाद के वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त पर आधारित नक्सलवाद की शुरूआत पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी में 25 मई 1967 को हुई थी।1 नक्सलवाद के नाम से पुकारा गया। इस आंदोलन को प्रारंभिक नेतृत्व माक्र्सवादी कम्यूनिष्ट पार्टी के सदस्य कानू सान्याल, चारू मजुमदार तथा जंगल संथाल ने प्रदान किया। इसके नेतृत्व में नक्सलबाड़ी गांव के बेरोजगार युवको तथा भूमिहीन किसानो ने गांव के भू-स्वामियों, पूंजीपतियों आदि अभिजात वर्ग के विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष अभियान चलाया। प्रारंभ में इसका उददेश्य आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक सामंजस्य एवं समानता स्थापित करना जिसमें मजदूरो, कृषकों तथा अन्य शोषित वर्ग का प्रभुत्व हो। नक्सलवाद उग्रविचार धारा की पृष्टभूमि पर आधारित लेकिन अलगाववाद से अलग है।2
नक्सलवाद के चिंतन का मूल आधार चीनी कम्युनिष्ट नेता माओत्सेतुंग का वह कथन जिसमें उसने कहा था कि कांति बंदूक की नाॅल से निकलती है। इसी कथन से वशीभूत होकर शोषित लोगो ने हथियार उठा लिये और शक्ति के द्वारा वे सामाजिक बदलाव लाने की जुगत में लग गये।3
नक्सलवादियों के शिल्पकारों में प्रारंभ से ही वैचारिक मतभेद रहे है। इस आंदोलन को जमीनी स्तर पर खड़ा करने और किसानो के बीच जीवन व्यतीत करने वाले कानूसान्याल का नाम हमेशा मजुमदार के बाद ही आया। यहां तक कि अकेले अपने दम पर कानूसान्याल जिस नक्सबाड़ी आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उस आंदोलन की विचारधारा भी अपने कामरेड साथी से बिलकूल भिन्न और उलट थी।
आपस में संघर्ष कर रहे सीपीआई (एम) के इन दो विद्रोही के बीच गहन वैचारिक मतभेद थे। मजुमदार वर्ग शत्रु को खत्म करने के नाम पर व्यक्तियों को मारने पर जोर देते थे। जबकि सान्याल का जोर इस बात पर था कि किसानो के लिए जमीनों पर दावा किया जाये। मजुमदार का विश्वास था कि सशस्त्र कांतिकारियों का एक छोटा सा समूह भी कांति कर सकता है, जबकि सान्याल समूचे कामगार वर्ग और खासतौर में किसनों को कांति में शामिल करना चाहते थे। मजुमदार व्यक्तिवादी थे, जबकि सान्याल जन नेता थेे। मजुमदार ने बंदूक उठाई और चुनाव समेत सभी लोकतांत्रिक माध्यमों का विरोध किया जबकि सान्याल चुनाव के विरोधी नही थे । सिर्फ उस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनकी कोई रूची नही थी जो गरीबों को उनके बुनियादी अधिकार देने में असफल हो गई थी। 4
इन नक्सलवादी कर्णधारों की लड़ाई कांति की चिंगारी आज अपने विकराल विध्वंशकारी रूपों में सर्वत्र फैलते जा रहे है और इससे लोकतांत्रिक शक्ति को काफी नुकसान हो रहा है। प्रारंभ में इसका मकसद जो भी रहा हों, पर वर्तमान स्वरूप काफी विकृत है। आज नक्सलवाद का तात्पर्य सिर्फ मौत के भयानक रूप से है। जिसकी न कोई शक्ल सूरत है और न ही कोई सीरत।
यही वजह हो सकता है कि नक्सली अपनी शक्ल को नकाब से ढक लेते है इसे सिर्फ मौत का पर्याय माना जा सकता है ठीक वैसा ही आतंकवाद का तात्पर्य अतिवाद से है जो अब आतंक का पर्याय बन गया है। आज देश के बारह राज्यों में यह प्रभावी है। महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश , कर्नाटक ,मिजोरम, नागालैण्ड, मणिपुर, असम आदि। यहां तक कि अब हरियाणा में भी इसके पांव पसर रहे है।5
छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद -
छत्तीसगढ़ का यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि यह प्रारंभ से ही नक्सल प्रभावित समीपवर्ती भौगोलिक क्षेत्रों से धीरा है। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की शुरूआत समीपवर्ती राज्य आन्ध्रप्रदेश की सीमा से लगे बस्तर से हुई है। शांति के टापू छत्तीसगढ़ की स्वर्गस्थली बस्तर में कुछ असमाजिक तत्वों का प्रवेश भोपालपटनम क्षेत्र से 1960 के दशक में हुआ। इससे पहले आन्ध्रप्रदेश में 1948 में इन असामाजिक तत्वों की गतिविधियां दूसरे रूपों में जारी थी। हालांकि तब इसे नक्सलवाद नही माना जाता था। 1967-68 में इन असामाजिक तत्वों की मनसबो अनुरूप कार्यगतिविधियों को छत्तीसगढ़ में भी नक्सलवाद के रूप में नामजद किया जा चूका था।6
भारत के 12 राज्यों के 220 जिलों में नक्सली फैल चुके है। सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र का 40 प्रतिशत क्षेत्र नक्सली ग्रसित है अर्थात 92 हजार वर्ग किलोमीटर वही छत्तीसगढ़ पिछले दो दशक से नक्सली समस्या के सिकंजा में कसता जा रहा है। आज तक 469 घटनाएं हो चुकी है, यह आंकड़ा पिछले वर्ष राज्य में इसी अवधि में हुई 265 घटनाओं के मुकाबले लगभग दो गुनी है। इन माओवादियों की चक्रव्यूह में असंख्य पुलिस अधिकारी, पुलिस जवान, हजारों निर्दोश आदिवासी शिकार होते जा रहे है, साथ ही साथ आज राष्ट्रीय सुरक्षा से घिरे वीर राष्ट्रीय एवं स्थानीय राजनेता चाहे वे किसी भी दल से संबंधित हो फसते जा रहे है। ताजा उदाहरण के रूप में कोंडागांव (बस्तर) के एक वरिष्ट भाजपा नेता पर कातिलाना नक्सली हमला हुआ, जबकि 25 मई की दरभाघाटी या झीरमघाटी की घटना जिससे छत्तीसगढ़ कांग्रेस पार्टी की परिवर्तन यात्रा के दौरान हुए राजनीतियों की घृणित नरसंहार न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि पूरे भारत वर्ष को हिला कर रख दिया। 7
जिसने नक्सलवाद की बढ़ती भायवकता पर राष्ट्रीय स्तर पर साझी रणनीति पर मंथन करने के लिए विवश कर दिया। साथ ही नक्सली गतिविधियों में अब तक छत्तीसगढ़ के तकरीबन चार अरब रूपये से अधिक की सरकारी एवं कुछ निजी संपत्ति नष्ट की गई । इस आंकड़े को पूरे देश के परिपेक्ष में देखे तो स्थिति की भयावता का अंदाजा स्वयं लग जाता है।
देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चूके नक्सलवाद से निपटने की रणनीति को अमल में लाते लाते देश और प्रदेश की सरकारे कुछ छटपटाहत के साथ ही सही पर सफल क्रियान्वयन चाहते है। छत्तीसगढ़ में सलवा जूडुम , ग्रीन हंट, एसपीओ (स्पेसल पुलिस आॅफिसर) एवं सरकार द्वारा शांति वार्ता की पेशकश आदि माध्यमों से इसे सुलझाने की कोशिश की जा रही है। हालांकि सलवा जुडुम नक्सल प्रभावित क्षेत्र बस्तर के आदिवासियों द्वारा नक्सलियों के विरूद्ध शुद्ध गैरराजनीतिक स्वः स्फूर्त जन आंदोलन है फिर भी इसे सरकार का भरपूर सहयोग प्रदान किया जा रहा है। वस्तुतः नक्सलियों के खिलाफ केन्द्र की अगुवाई में सभी नक्सली प्रभावित राज्यों के लिए संयुक्त रणनीति बनाने की इस परिकल्पना के आधार यह था कि नक्सली एक राज्य में अपनी हिंसा को अंजाम देकर आसानी से जंगल के रास्ते दूसरे राज्यों में पनाह लेते है। 8
एतिहासिक अवधारणा:-
सर्वप्रथम ऐतिहासिक अवधारणा छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यह है कि नक्सली समस्या उन क्षेत्रों में पनप रहे है जहां आर्थिक असमानता, सामाजिक भेदभाव और राजनीतिक पिछड़ापन है। यह बात सत्य है कि छत्तीसगढ़ में नक्सल प्रभावित सभी जिले इसी श्रेणी का है किन्तु इसकी तुलना नक्सलवाद की उस मूल सिद्धांत जो कि कैहूर द्वारा प्रतिपादित कार्लमाक्स के आर्थिक समानता के सिद्धंात से सिंचित चीनी कम्युनिष्ट नेता माओत्सेतुंग की सशस्त्र खुनी रक्तपान कांति मजुमदार की व्यक्तिवादी किसान समर्थक नीति वही सान्यल की जनवादी सिद्धान्त आदि सिद्धान्तो पर पुष्पित एवं पल्लवित नही की जा सकती क्योकि जिस आर्थिक असमानता समाजिक भेदभाव व राजनीतिक जागरुकता की बात हम छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लिए करते है उन लोगो में यह तुलनात्मक मनोभाव था ही नही। उन लोगो ने कभी नही सोचा कि उन्हे तथा कथित अभिजात या कुलीन वर्गो के समान सभ्य एवं सुसंस्कृत होना हैं। यही वजह हो सकता है कि वे आदिवासी लोग शहरी सभ्यता को कभी भी आत्मसात नही कियार्, िफर हम कैसे मान सकते है कि नक्सलवाद साम्यवाद के सिध्दांत पर पनप रहा है? कम से कम छत्तीसगढ़ के सन्दर्भ में तो नही कहा जा सकता। रही बात सलवा जूडूम का, हालाॅकि यह स्वस्फूर्त जन आन्दोलन है, फिर भी उनके केन्द्रीय भाव में साम्यवाद के स्थान पर केवल नक्सली उत्पीड़न से मुक्ति है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी भुखमरी या गरीबी से उतना व्याकुल नही जान पड़ता जितना कि नक्सली समस्या से। अब भी शहरी सर्वसुविधायुक्त या वातानुकुलित जीवन शैली के स्थान पर परंपरागत स्वच्छंदतापूर्वक जीना पसंद करता है।9
अतः यह सिध्दांत निर्मूल साबित हो जाता है कि छत्तीसगढ़ में मुख्यतः नक्सली समस्या उन क्षेत्रो में पनप रही है जहां आर्थिक पिछड़ापन है तात्पर्य यह कि नक्सली समस्या पनपने में कही न कही दोष एवं प्रशासनिक असमानताएं है यह दोष एवं असमानताएं राजनैतिक प्राशासनिक सामाजिक कुछ भी हो सकता है।
दूसरी अवधारणा भौगोलिक स्थितियों का है। वनो की सघनता सदा निरा जीवनदायी नदियां प्राकृतिक नैसर्गिक सुन्दरता एवं खनिज संसाधनो से परिपूर्ण मध्यप्रदेश के दक्षिणपूर्व में अवस्थित धान का कटोरा कहा जाने वाला मैदानी इलाका आज का छत्तीसगढ़ अपने अंचल में अर्द्ध नगरीया सभ्यता लिये आदिवासियों मे अनोखी रीतिनीति को संजोय हुये राष्ट्रीय एकता की धूरी को थामे हुए है किन्तु यही विशिष्ट अवस्था नक्सलियों के लिये शरणास्थल बन गया है।
तीसरी अवधारणा काफी अहम एवं मूल्यवान है और यह है कि भोले भाले छत्तीसगढ़ वासियों की सहज मिलनसार प्रवृति जिसकी चलते हुए किसी अजनबी से भी एक ही पल में घुल मिल जाते है। इसकी प्रवृत्ति का फल है नक्सलवाद तात्पर्य अगर प्रारंभिक दौर में ही उसका विरोध किया गया होता तो शायद आज यह दिन देखने को नही मिलता।10
आचार्य विनोबाभावे कहते थे कि जिन्दा व्यक्ति व जिंदा समाज के सामने समस्याएं हमेशा रहेगीं। समस्याओ का होना ही व्यक्ति और समाज के जिंदा होने की निशानी है। इसलिये जरूरत समस्यााओं से घबराने से नही बल्कि उनके समाधान का रास्ता खोजने की है। समस्याओं का हल खोजते जाना ही सही मायने में पुरूषार्थ है।
वास्तव में नक्सली समस्या किसी छत्तीसगढ़ जैसे एक राज्य की नही पूरे राष्ट्र की समस्या है। देश की सभी प्रांतो की सरकार के संयुक्त प्रयास से नक्सलियों को जड़ से समाप्त करने में अपनी शक्ति लगायें। शिक्षा का, प्रसार स्वास्थय सुविधाओं का विस्तार, सड़को का निर्माण जैसी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करना आवश्यक है।11 इन सब गतिविधियों के संचालन में प्रत्येक प्रांत के सरकार अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदिता भूलाकर सार्थक प्रयास करें।
छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की एक ऐतिहासिक अवधारणा यह है कि बस्तर की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि आज भी उसकी दुर्गमता को भेद पाना आसान नही है। ऐसे में अजनबी परिवेश से आई फोर्स यदि स्वयं ही आसान शिकार बन रहे है। यह स्वभाविक ही है तमाम अलोचनाओं के बावजुद सलवा जुडुम जारी रखा जाना चाहिए क्योंकि केवल फोर्स के जरिये नक्सली खदेड़े नही जा सकते। केवल जनजागरण से ही उन्हे मात दी जा सकती है। दरसल अब तक वे जिस जनता को ढाल बनाकर बचते रहे है। वह ही उनके खिलाफ हो जाये तो उनका बचे रह पाना असंभव हो जायेगा।
छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में अब तक आजादी के बाद भी विकास नाम की चिड़िया तो कभी पहूंची ही नही इतना ही नही यहां सरकार एवं प्रशासन भी महज प्रतिकों के रूप में जिंदा रहे है। ऐसे महौल में नक्सली कुछ ही सालों में दादा बन बैठे तो इसमें आश्चर्य कैसा दूर राजधानी में बैठ कर बस्तर के मुतालिक फैसले तब भी होते थे और अब भी हो रहे है। यदि नक्सलवाद ने यहंा जड़ जमाया तो स्वभाविक ही है।
आखिर ऐसी कौनसी मजबूरी है कि हम उन घटनाओं को रोक नही पा रहे है और बेकसुर लोग मारे जा रहे है। हर घटना के बाद रटी पीटी प्रतिक्रियाएं होती है। जांच एजेंसीस बैठती है रिपोर्ट आती है। कुछ कार्यवाहियां भी होती है और उसके बाद मामला फिर ठंडे बसते में। हमें इस स्थिति से उबरना होगा बस्तर में नक्सलियों के जटिल सूचना तंत्र के मूल में आम ग्रामीण ही है। यदि उन तक सरकारी तंत्र की पहुंच हो जाये तो इसके बाद नक्सली यकिनन टिक नही पायेगी। भारतीय राजनिति में यह आरोप प्रत्यारोप लगते रहे है कि नक्सलियों या आतंकियो को पनाह देने वाले भ्रम भय और स्वार्थ में डुबे लोगो की कमी नही है। यहां सवाल खड़ा होता है कि उन लोगो में अपने राष्ट्र की प्रति अनुरक्ति क्यों नही है इसलिये ऐसे लोगो की पहचान कर उचित कार्यवाही करने के साथ साथ ऐसा भी करने की आवश्यकता है। जिससे की उनमंे राष्ट्र प्रेम की भावना जागृत हो ।
नक्सली समस्या का सामाधान किसी एक राजनैतिक दल या पंत या बल से संभव होना नही लगता सवाल तो यह है कि नक्सली ही क्यों बनते है। प्रारंभ से लेकर आजतक इन वर्षो में नक्सलियों का न केवल स्वरूप परिवर्तित हुआ है बल्कि उदेश्य भी बदल गये लगते है।
नक्सली खतरे को भांपते हुए भारत में अंततः राष्ट्रीय स्तर पर साझी रणनीति विकसित हो रही है। वह इसलिए भी जरूरी हो गया है कि माओवादी देश के लिये बहुमुखी समस्या खड़ी कर रहे है। विश्व अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना है कि नक्सली हिंसा के चलते भारत का सीमित राजस्व इस कदर आतंरिक सुरक्षा पर ही खर्च होता रहेगा कि वह चीन के बराबर की विश्वशक्ति नही बन पायेगा जो बात अर्थ शास्त्रियों राजनयकों सुरक्षा विशेषज्ञों के समझ में आ चुकी है। वह हमारे राजनितिज्ञों के पल्ले क्यों नही पड़ती है।
संदर्भ सूची
1. सेन , सुनील कुमार, ‘प्रेजेन्ट मुवमेंट इन इण्डियाः मीड नाईटिन्थ एण्ड टवेण्टीथ सेंचुरी, के. पी. बागची पब्लीकेशन बंगाल 1982 पृ. 10
2. दिवान , ए.के. प्रायमरः हू आर द नक्सलाईड‘ , 2 अक्टुबर 2003,
ीजजचरूध्ध्नेण्तमकपििउंपसण्बवउध्दमूेध्2003ध्वबज02 पृ. क्र. 102
3. सिंग, प्रकाश , ‘द नक्सलाईट मोवमेंट इन इण्डिया‘ , नई दिल्ली रूपा एंड कम्प. 1999 पृ. 101
4. हिन्दुस्तान टाईम्स, ‘हिस्ट्री आफ नक्सलीज्म‘ , संपादकी पेज 12 दिसम्बर 2007
5. श्याम बेताल, संपादक दैनिक हिन्दी सामाचार पत्र नवभारत प्रकाशन आर. अजीत द्वारा श्रीराम गोपाल इन्वेस्टमेंट प्रा.लि. नवभारत भवन प्रेस काम्पलेक्स, जी.ई रोड रायुपर, संपादकीय पेज, दिनांक 24 फरवरी 2009
6. पूर्वावत , दिनांक 25 जनवरी 2010
7. पाम्पलेट , छत्तीसगढ़ शासन, राजोत्सव- 2010 से प्राप्त जानकारी
8. न्यूज चैनल, ‘आज तक‘ में प्रसारित सलवा जुडुम पर विशेष प्रोग्राम दिनांक 20 मार्च 2007
9. छ.ग. विधानसभा चुनाव 2008 की विशेष रिपोर्ट एक टी.वी. प्रोग्राम जी. 24 चैनल
10. त्यागी महावीर सिंह ‘छत्तीसगढ़ का एतिहास‘ राजीव प्रकाशन मेरठ पृ. 19,20,21 प्रथमसंस्करण
11. नवभारत, दैनिक सामाचार पत्र एवं न्यूज चैनल इंडिया न्यूज दिनंाक 25 मई 2013
Received on 26.12.2013
Modified on 05.01.2014
Accepted on 15.02.2014
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Research J. Humanities and Social Sciences. 5(1): January-March, 2014, 69-72