स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी-साहित्यकारों की एक दृष्टि: ग्राम-चेतना की ओर
जयपाल सिंह प्रजापति
सहायक प्राध्यपक-हिन्दी, शासकीय महाविद्यालय बकावण्ड, बस्तर (छ.ग.) भारत.
आधुनिक वैश्विक परिदृश्य जिस गति से भूमंडलीकरण के दौर से गुजर रहा है, इससे यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि-उसकी दृष्टि और रूख भी अब गाँव की ओर है। तब भला गाँव की मिट्टी में पला-बढ़ा साहित्यकार क्यों न उसकी महक को अभिव्यक्त करता ? कृत्रिमता से दूर बिलकुल यथार्थ अभिव्यक्ति स्वाातंत्र्योत्तर हिन्दी-साहित्यकारों की रही है। इन रचनाकारों ने ग्राम-चेतना के जिन बारीक बिंदुओं को देखा-समझा तथा अपनी अनुभूति और अभिव्यक्ति का विषय बनाया है, उससे उनके गहन ग्राम्य विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण की परिणति ही स्वीकारी जानी चाहिए। क्योंकि जब जनकवि कहता है-
जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाउँ
जनकवि हँूं मैं, साफ कहँूंगा क्यों हकलाउंँ
तो, उसने एक लम्बा रास्ता तय किया है- ग्राम्य-चेतना को पहचानने के लिए। और कहा जा सकता है कि इन साहित्यकार में ग्राम-चेतना को परखने की वह क्षमता विद्यमान है जो अब बहुत कम दिखायी देती है। संदर्भ बदले है एक कारण हो सकता है, लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि संदर्भ ही नहीं बचे है! संदर्भ आज भी हैं।
इसलिए बिना हकलाए नागार्जुन लिखते हैं-
बीड़ी पियेंगे , आम चूसेगे, सुगंधित साबुन की टिकिया घिसेंगेः
लगाएंगे सर में चमेंली का तेल
यह ‘बीड़ी का धुआँ’ और ‘आम चूसने’ का सामंजस्य और फिर आगे ‘साबुन’ और ‘चमेंली का तेल’ लगाना, एक ऐसे व्यक्ति का बिंब बनाता है-जो सर पर पगड़ी बांँधे हुए, बीड़ी का धुआँ उड़ा रहा है किसी खेत की मेढ़ पर बैठ-खुले आसमान के नीचे बिना कोई चिंता के। नागार्जुन का यह ग्राम-जीवन यथार्थ; एक ओर तो उनकी ग्राम्य अनुभूति को विस्तार देता है वहीं दूसरी ओर ग्राम्य अनुभूति को अभिव्यक्ति की प्रमाणिकता तक पहुँचाता भी है।
बाबा नागार्जुन किसान-आंदोलन में दो बार जेल गये और जब उन्हें लगा कि कोई उनसे तानाशाही कर रहा है तो उन्होंने अपना सीना तान दिया। रामविलास शर्मा ने लिखा- ‘‘ढाई पसली के घुमन्तू जीव, दमे के मरीज़, गृहस्थी का भार-फिर भी क्या ताकत है नागार्जंुन की कविताओं में’’ गाँव का आदमी जब शहर जाता है और फिर शहर में भी वही चाल-ढाल! तो शहर की चिकनी सड़कों पर चलने भर से शहरी नहीं हो जाते हैं, और फिर ये तो बाबा नागार्जुन हैं। एक संदर्भ प्रभारकर श्रोत्रिय ने बाबा नागार्जुन के संबंध में लिखा-‘‘ एक दिन अलस्सुबह बाबा नागार्जुन, बुजुर्गवार त्रिलोचन के साथ अचानक मेरे घर आ धमके। पहले से कोई खबर न थी। कड़ाके की ठण्ड। अभी आंँख ठीक से खुली भी न थी और दो-दो बाबा दुवार पर! मैं स्वागत-सत्कार की हलचल में आ गया, तो बोले-‘‘चाकू और प्लेट ला दो।’’-‘‘क्यों’’-बाबा झोले में अमरूद लाये थे। अमरूद और ठण्ड में सुबह-सुबह! मुझे परेशान देखा तो बोले, ‘‘हाँ, यह दमे का इलाज है। हमेशा सुबह अमरूद खाना चाहिए। सेहत के लिए।’’ जनकवि जानता है कि कौन-सी बात किससे और कैसे करनी है एवं कहाँ पर लिखनी है।
इधर त्रिलोचन लिखते हैं-
‘‘चम्पा, पढ़ लेना अच्छा है
चम्पा बोलो-तुम कितने झूठे हो
राम, राम, तुम पढ़-लिखकर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करूँगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग-साथ रख्ूाँगी
कलकत्ता मैं कभी न जाने दूँगी
कलकत्ते पर वज्र गिरे’’
लेकिन यह अहीर की निरक्षर बेटी ‘चम्पा’, अपने होने वाले हम साथी को कलकत्ता जाने से रोक पाएगी ? त्रिलोचन की ये पंक्तियांँ हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या चम्पा की ये बात मूर्त रूप ले पाएगी? यह तब और एक बड़ा प्रश्न हो जाता है, जब ग्राम्य समाज तेजी से आधुनिक पूँजीवादी दायरे में धसता जा रहा है समाज का एक वर्ग रोजी-रोटी की तलाश में गाँव से शहर, महानगर पलायन कर रहा है लकिन उनके परिवार के सदस्य चाहते है हम गाँव में ही रहें। त्रिलोचन ऐसे ही अनेक प्रश्नों को, ग्राम्य भाषा, ग्राम्य जीवन और वहांँ रहने वालीं ‘चम्पा’ जैसी अधिकांश ग्राम लड़कियों की मनोदशा को बड़े सहज अंदाज में अभिव्यक्त करते हैं।
स्वातंत्र्योत्तर काल में जब आगे बढ़ते है तो केवल नागार्जुन और त्रिलोचन की कविताओं तक ग्राम्य अभिव्यक्ति सीमित नहीं रहती अपितु समकालीन साहित्यकारों की दृष्टि भी ग्राम तक गई, और न सिर्फ गई बल्कि एक क्षण ठहरी भी।
शमशेर की इन पंक्तियों में ग्राम चेतना देखिए -
‘‘मेरुंड है मेरा भाई
एक गाँव में, मुरादाबाद जिले में
उसको चना नहीं चाहिए
उसको मेरा सफर चाहिए ट्रेन में वहाँ तक....
उसकी कच्ची छत के नीचे मैं भी क्यों न हुआ
जहाँ उसके बच्चे सोते थे, या जागते रहे होंगे जब बाढ़ आई’।
जो उनका भविष्य, उनके हाथों-पाँवों की शक्ति से
निरन्तर बनाता मिले-जुले प्रयत्नों के सहारे
अधिकाधिक जीवन के सुख में
प्राप्त होता जाता है
वह मन
.....वह जीवन मैं हूँ, शमशेर,मैं
आज निरीह
कल फतहयाब
निश्चित।’’
स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी-साहित्य में कविताओें के अतिरिक्त-कहानी, उपन्यास में ग्राम चेतना की अभिव्यक्ति पूरे ग्राम आयामों के साथ हुई है। यह भी सच है कि कथाकरों ने ग्राम्य परिवेश और वहांँ की वास्तविक जनुभूतियों तथा परिस्थतियों का चित्रण सूक्ष्मता से किया है। उन्होंने ग्राम संदर्भों को लेकर अपनी अनुभूति भी सहज अंदाज में अभिव्यक्ति की-कहानी, उपन्यास के माध्यम से। भीष्म साहनी की ‘मुर्गी की कीमत’, अमरकांत की ‘दोपहर का भोजन’, शेखर जोशी की ‘पुराना घर’, मार्कण्डेय की अधिकांश कहानियांँ ग्राम चेतना और वहाँ के लोगों की जीवटता को अभिव्यक्त करतीं है।
भीष्म साहनी की कहानी ‘मुर्गी की कीमत’ का अहमदू ग्रामिण समाज का प्रतिनिधित्व करता ऐसा सशक्त कहानी पात्र है जो रोजी-रोटी की तलाश में गाँव से बाहर शहर (खिलनमर्ग) जाता है। उसकी एक चाहत है-कि वह अपनी आर्थिक स्थिति ठीक करे ले, कम-से-कम परिवाार को अच्छे से पाले सके; दो जून की रोटी दे सके। इसमें कहानीकार भीष्म साहनी ने उस वर्ग को चित्रित किया है जिस वर्ग का अधिकांश तबका ग्राम्य में बसता है और वह आधुनिक तकनीकी से दूर अपने शारीरिक परिश्रम पर अधिक विश्वास रखता है। यहाँ अहमदू भारतीय मेहनतकश व्यक्ति चेतना का प्रतीक है जो वर्गीयता (आर्थित) का दंश झेल रहा है और चुंगी का कर (जंग) इसलिए नहीं दे सकता क्योंकि उसके पास उतने पैसे नहीं है। कालांतर से ग्राम्य समाज और वहाँ की जनता की यह बहुत बड़ी समस्या रही है-धनाभाव। जिसके कारण वे अपनी भावी योजनाओं को मूर्त रूप नहीं दे पाता हंै।
इन दोनों संदर्भों में-एक त्रिलोचन की ‘चम्पा’ जो अपने होने वाले पति को कलकत्ता जाने नहीं देना चाहती है और एक है ‘अहमद’ू जो मजदूरी करने, दो जून की रोटी तलाशने खिलनमर्ग जाता है, पाँच माह की कठोर मेहनत करता है, फिर पत्नी और अपनी बच्ची को खुश करने के लिए अपनी गाढ़ी कमाई के छः पैसे से लेता है-मुर्गी, और उसे भी वह अपनी पत्नी और बच्ची तक जींदा नहीं ला पाता। ये दोनों संदर्भो-एक त्रिलोचन और दूसरा भीष्म साहनी का-केवल ग्राम चेतना की अभिव्यक्ति तक सीमित नहीं किए जा सकते हैं अपितु यह एक वर्ग की अभिव्यक्ति है जिसे कुछ लोग चलते शब्दों में देहाती भी कह देते है। लेकिन इन देहातियों के सामने एक है-परिवार पालने की समस्या है, तो दूसरी ओर है-एक ग्राम नारी का आत्मीय प्रेम। ये दोनों पहलु न केवल उस देहाती भर के स्वीकारे जाने चाहिए बल्कि यह सम्पूर्ण किसान, मजदूर जनता को भी अपने में सम्मिलित करते हैं जिन जीवन-वास्तविकता से आज हम भी ज्यादा दूर नहीं हैं।
अमरकांत की कहानी ‘दोपहर का भोजन’ में जिस ग्रामिण महिला सिद्धेश्वरी की जीजिविषा अभिव्यक्ति मिलती है, वह भारतीय ग्राम चेतना और भारतीय नारी की वह सुदृढ़ एवं प्रगतिशील परंपरा का उदाहरण है जिसमें वह मानवीय चेतना निहित है कि वह खुद भूखे रह कर भी पति-बच्चों को भोजन कराती है। प्रगतिशील परंपरा इसलिए हम कह सकते है क्योंकि सिद्धेश्वरी जैसी अनेक भारतीय नारी अपने पति को कार्य करने और भावी योजनाओं के सफल संचालन के लिए आवश्यक सलाह भी देती है। और यह तभी हो सकता है जब वह नवीन परिस्थियों के साथ अपना तालमेल बैठा पाए। ऐसी मिशाल भारतीय नारी के अलावा संभव है और न मिलगी! इतिहास गवाह है और अमरकांत की यह कहानी भी कि जब-जब पुरुष को आवश्यकता पड़ी है तब-तब महिलाएँ अपना सर्वस्व त्यागने के लिए तैयार हो जातीं है एक बात और इसी संदर्भ में कह देना उचित है कि अमरकांत ने जिस पात्र का चुनाव सिद्धेश्वरी के रूप में किया वहाँं केवल सिद्धेश्वरी भर के धैर्य, सहनशीलता, ममत्व को एक दायरे तक सीमित नहीं किया जा सकता बल्कि वास्तविका तो यह है कि भारतीय समाज की प्रत्येक नारी में वह धैर्य, सहनशीलता और प्रगतिशील विचारधारा विद्यमान हैै और आज भी हैं।
ग्राम चेतना को आगे बढ़ाते हुए शेखर जोशी की 2004 में छपी ‘पुराना घर’ की ये पंक्तियाँ-‘‘गृहपति का चेहरा एकाएक आत्मीय भाव से दीप्त हो उठा, ‘अरे! धन्य भाग्य हमारे! व्यास मास्साब तो हमारे भी गुरूजी रहे थे। बल्कि उनके बड़े बेटे- क्या नाम था उनका, हाँ रमेश! रमेश हमसे एक क्लास नीचे थे।’’ उस ग्राम चेतना की अभिव्यक्ति को पुर्नजीवित करने की एक धुंधली किरण के समान है जिसमें व्यक्ति शहर और महानगरीय जीवन जीने में, और उसमें रमने के पश्चात् भी अपने ग्राम्य-मूल्यों और उससे ज्यादा मानवीय-मूल्यों को भूल नहीं पाया है, भले वह जीवन की आपाधापी में वह कुंठा, तनाव से ग्रसित हो कर उस मानव की प्रतिमूर्ति बन जाता है जो निर्जिव-सा हो गया है। यही वह कारण है और यहीं वह बिंदु है जहाँ न केवल वह डाॅक्टर परिवार अपनी जड़े तलाशता है बल्कि वह ग्राम्य परिवेश में जीना भी चाहता है। और इन दोनों परिवार का-एक ग्राम्य परिवार का और दूसरा शहर, माहानगरीय जीवन व्यतीत कर रहे लोगों के परिवार, दोनों की चेतना भिन्न है। सवाल अब सबके सामने है कि वह महानगर दिल्ली का रहने वाला डाॅक्टर, अब भी वही प्रेम वही आत्मीयता, वही ग्राम चेतना पाने के लिए क्यों लालायित है, आखिर ऐसी कौन सी विशेषता आज भी उस ग्राम परिवेश में मौजूद है जो उसे आज भी उस ओर आकर्षित होता है? कुछ तो है! और यह भी सच है कि शहर और नगरवासीयों, तथा गाँव में निवासरत लोगों की मानोवृत्ति में परिवर्तन हुआ है लेकिन उतने तेजी से नहीं जितना शहर, नगर तथा महानगर वासियों का। और यह भी सच है कि पूरा का पूरा व्यक्ति-मन ही परिवर्तित हो गया हो ऐसा नहीं।
शेखर जोशी की कहानी ‘पुराना घर’ कहानी में व्यक्त चेतना से आगे बढ़ते हुए आज के भारतीय समाज में और व्यक्ति चेतना में क्या परिवर्तन आया है और दुनिया के चकाचैंध से अपने वजूद को नहीं पहचान पा रहा युवक, इसे व्यक्त करती है-ज्ञानरंजन की कहानी ‘बहिर्गमन’। जिसमें पात्र सोमदत्त पानी जहाज में अपने साथी मनोहर को देखता हुआ कहता है-‘‘जल का ज्वाद पेंदी से लड़ रहा था। यंत्र ने उसे धीरे-धीरे दूर तक बढ़ा दिया। मनोहर नया था, वह अधिक आसक्ति के साथ डेक पर खड़ा रहा।...... इस समय मेरी सामाजिक चेतना और मेरी कठोरताएँ मेर पास नहीं थीं, फिर भी मैंने सोचा सूअर और कुत्तों का देश, मनोहर को अब धँुधला लग रहा होगा।’’ सोमदत्त द्वारा अपने देश को सूअरों और कुत्तों का देश कहा जाना हमें यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि आखिर ऐसे शब्दों को ज्ञानरंजन ने क्यों लिखे? इसके कारण है और वे भी ठोस। व्यक्ति चेतना में आए बदलाव वे भी इस कारण क्योंकि पश्चिम की आबोहवा देश के नौजवानों को आकर्षित कर नहीं है और एक सीमित व्यक्ति चेतना में सीमटता जा रहा है। जिस स्वच्छंता के हम हिमायती है या हो गए है उसने केवल व्यक्ति मन को परिवर्तित नहीं किया अपितु व्यक्ति व्यवहार को भी बदला है और कुछ लोगों को तो बिलकुल आधारहीन। इसका जिम्मेदार कारण है पूँजीगत सामाजिक व्यवस्था का उदय होना यही वह कारण है जिसने व्यक्ति-व्यक्ति, व्यक्ति-परिवार, व्यक्ति-समाज, व्यक्ति-देश और इससे ज्यादा व्यक्ति के नैतिक कर्तव्यों मूल्यों को विघटित किया है। पूँजी केन्द्रित मानव चेतना ने ग्राम्य चेतना को भी परिवर्तित किया है। निरंतर हो रही युवा शक्ति का पलायन इस बात का गवाह है कि हमारी सामाज आधारित व्यवस्था विखण्डित हो रही। और यह व्यवस्था जब व्यक्ति आधारित होती है उसकी परिणति क्या हो सकती है वह है कहानी ‘बर्हिगमन’ में।
यूँ तो ग्राम कथाकार रेणु को कहा जाता है और उन्होंने स्वयं इस बात को अपने उपन्यास ‘मैला आँचल’ में स्वीकारा है। किन्तु समीक्षकों ने ‘परति परिकथा’ को भी अंचल से जोड़कर देखा और उसे आँचलिक घोषित भी किया। इन्हीं के समकालीन कथाकार मार्कण्डेय ने ग्राम संदर्भों को साहित्य में लिया। यही कारण रहा कि समीक्षक उन्हें भी ग्राम कथाकार के रूप पहचानने लगे। हालाँकि मार्कण्डेय ने ग्रामेतर कहानियाँ भी लिखी। वास्तविकता तो यह थी कि मार्कण्डेय केवल ग्राम कथाकार भर नहीं थे बल्कि एक सजग और सफल ग्राम्य चेतना के कथाकार थे जिन्होंने केवल ग्राम संदर्भों को लिया था, और अपनी प्रगतिशील दृष्टिकोण अधिक पुष्ट और प्रांजलता प्रदान की है। उनके उपन्यास ‘अग्निबीज’ में भी ग्राम संदर्भ अधिक हंै। मार्कण्डेय ने इस उमन्यास में बच्चों की एक पूरी टीम बना ली ह,ै नीलिमा और सुमंगल जैसे युवा पात्रों द्वारा गाँधीवादी विचारधारा को अपनाना एक सुदृण ग्राम्य चेतना का परिचय है। या दूसरे शब्दों में यह कहें कि आज भी ग्राम चेतना में गाँधी के विचारों के प्रति सम्मान है जिसे अपनाना चाहता है आज का युवा वर्ग। उनकी कहानियों मे गुलरा के बाबा, महुवे का पेड़, सोहगइला, आदर्श कुक्कुट गृह, जूते, मधुपुर का सिवान, आदि भी उस ग्राम चेतना को प्रदर्शित करती है जिसमें कहानी पात्र ग्राम चेतना और ग्राम संदर्भों की अभिव्यक्ति पूरी जीजिविषा से करते हंै। कहानी ‘गुजरा के बाबा’ में गाँव की संगठन शक्ति और फिर कथानक में थोड़ा मोड़, जहाँ पर चैतू परंपरागत रीतियों से समझौता करने से मना कर देता है और इसका आभास खुद गुलरा के बाबा को होता है किन्तु वे इसे स्वीकारते हैं और चैतू के घर के लिए केवल सरपत ही नहीं कटवाते बल्कि उसके घर को बनाने की पूरी जिम्मेदारी भी लेते है-एक ग्राम मुखिया के नाते। कहानी ‘महुवे का पेड’़ की दुखना को जिस तरह कथाकार मार्कण्डेय ने चित्रित किया है वह वास्तव में ग्राम महिला की वस्तुस्थिति है और जो सामंति ढाँचे को खत्म करने को कह रही है। आज की वस्तुस्थिति भी कामोवेश ऐसी ही है बस इस शोषण का तरीका बदना है पहले किसी गरीब विधवा महिला की झोपड़ी गाव का जमीदार तोड़वा देता था अब काई बिल्डर उद्योग लगाने के नाम पर सरकार से अनुमती ले कर गाँव पर गरीबों की झोपड़ी पुलिस बल के साथ तोड़वाता है। कहानी ‘जूते’ का मनोहर और उसके लिए जूते का महत्व उस बाल चेतना में संचित है जिसे जूतों की आवश्यकता है। मनोहर को तपती धूल और अंगार-सी धूल, में हरे पलास के पत्तों की महत्ता क्या हो सकती है वह इसे अच्छे से जानता है। लेखक की यह दृष्टि कहांँ तक गई यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं, महत्व तो इस बात का है कि उनकी दृष्टि ग्राम संदर्भ के उस बिंदु तक गई है जिसके लिए कहा जाता है जहाँ नहीं पहुंँचा रवि वहा पहुँचा कवि। अर्थात् इन साहित्यकारों ने ग्राम संदर्भों को केवल लिखा ही नहीं अपितु एक सुदृढ़ ग्राम्य चेतना का उपयोग कर चित्रित भी किया हंै।
समग्रतः यह कहा जा सकता है कि स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य मेें ग्राम चेतना की अभिव्यक्ति जिस जीजिविषा से रचनाकारों ने की है वह केवल साहित्यिक योगदान तक नहीं सीमित किया जा सकता बल्कि इन रचनाकारों ने एक सुदृढ़ ग्राम चेतना को सामने लाने में अपनी सामाजिक भुमिका का परिचय दिया है। और यह भी सच है कि आज भी यह ग्राम चेतना की महक और गाँंव की ठसक कामोवेश वैसे ही है जैसे स्वतंत्र्ता पूर्व थी, भले ग्राम जन जैसे भी जीवन बसर कर रहे थे अथवा कर रहे हैं, साहित्य-शिल्पी और जनमानस के लिए आज भी गाँव प्यारा है बस ग्राम चेतना के कुछ संदर्भ बदले है और कुछ विषय बदले हैं।
इसे इन पंक्तियों में व्यक्त करता हूँ-
गाँव की सुंदरता
ना देख खिड़की से,
खिड़की में लगा काँच
रंगीन है,पर्दा पर खिले सरसों के फूल
असली नही,ं
जो पढ़ते हो किताबों में,
गाँव की हरियाली
वो भी असली नही,ं
अगर देखनी है गाँव की हरियाली और वहाँ के लोग!
तो,
उतर गाँव के गीले खेतों में,
गीली मिट्टी
जब लगेगी पाँवों में,
निकालने झुकोगे
तब हरियाली
जनदीक से देख पाओंगे,
झुकोगे तो,
सरसों की खुशबु तुम्हें मुफ्त मिलेगी,
देखोगे मु्फ्त पनिहारिन, किसान-बैल, गाय-बछड़ा व गाँव-प्रेम।
-जयपाल
सहायक ग्रंथ -
1. सिंह, बच्चन. आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011.
2. सिंह, नामवर, आधुनिक साहित्य की प्रवृŸिायाँ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2008.
3 श्रोत्रिय, प्रभाकर. कवि परंपरा तुलसी से त्रिलोचन भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, 2009.
4. मधुरश. हिंदी कहानी का विकास, सुमित्र प्रकाशन, इलाहाबाद, 2008.
5. मदान, इद्रनाथ. हिन्दी कहानी की पहचान और परख, लिपि प्रकाशन, दिल्ली, 1992.
6. अवस्थी, देवीशंकर. नयी कहानी सन्दर्भ और प्रकृति, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1973.
7. रेणु, फणीश्वरनाथ. मैला आँचल, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2009.
8. मार्कण्डेय. अग्बिीज, नया साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद, 2000.
Received on 15.12.2011
Revised on 10.01.2012
Accepted on 25.02.2012
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Research J. Humanities and Social Sciences. 3(2): April-June, 2012, 161-164