धर्म की उत्पत्ति एवं विकास: एक दर्शनष्शास्त्रीय विवेचन

 

महेन्द्र कुमार प्रेमी

 

शोध-छात्र (पीएच. डी.) पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर,        (..)-492010

 

 

 

सरांश 

धर्म का वास्तविक स्वरुप क्षेत्र और उसका मानव जीवन में स्थान आदि विषयों का निरुपण तब-तक पूर्ण नही हो पाता जब-तक कि यह जान लिया जाए कि धर्म की उत्पत्ति और विकास कैसे और किन-किन परिस्थितियों में हुआ। धर्म की उत्पत्ति और विकास की समस्या धर्म और दर्शन की समस्याओं में से एक प्रमुख समस्या है धर्म दर्शन उन प्रश्नों पर विचार करता है कि मनष्ुय क्यों और कैसे धार्मिक बना ? धर्म का यह आधुनिक एवं सर्वोच्च रुप क्यों और कैसे प्राप्त हुआ ? किन-किन रुपों में धर्म इस स्थिति तक पहुंच सका ? आदिम और अविकसित धर्म तथा आधुनिक प्रगतिशील विश्व धर्म में क्या अंतर है ? वे कौन-कौन से तत्व है जिनके कारण मनुष्य धार्मिक बनता है ? इसी परिप्रेक्ष्य में यदि हम इस विषय की चर्चा का शुभारंभ आदिम समाज में धर्म एवं उसकी विशेषताओं के साथ करें तो यह ज्यादा सार्थक होगा। आदिमानव के मन में एक प्रश्न रहा होगा कि निद्रावस्था या मृतवस्था में पर्याप्त समानता होने पर भी निद्रावस्था मृत्यु जैसी क्यों नहीं है? स्वप्न में शरीर से कोई शक्ति निकलकर विभिन्न स्थानों पर जाती है, विभिन्न मृत एवं जीवित व्यक्तियों से मिलती है और नींद टूटने पर पुनः लौट आती है। मृत अवस्था में भी शरीर से कोई शक्ति निकलती है जो शरीर को निष्क्रिय कर देती है, परन्तु वह पुनः नहीं लौटती है। इससे आदिम मानव ने यह निष्कर्ष निकाला होगा कि  प्रथम मुक्त आत्मा जो मनुष्य के शरीर से बाहर जा सकती है और हर तरह के अनुभव करके पुनः लौट आती है। दूसरी शरीर आत्मा ;इवकल ैवनसद्ध जो एक बार शरीर छोड़कर चली जाती है तो पुनः लौटकर नहीं आती और मनुष्य मर जाता है और उसकी आत्मा भूत या प्रेतआत्मा बन जाती है-यह आत्मा अमर है, यदि ऐसा नहीं होता तो बहुत समय पूर्व मरे व्यक्ति स्वप्न में कैसे और क्यों दिखाई देता? इस प्रकार टाॅयलर (1871) के उपर्युक्त मतानुसार इन अमूर्त और अभौतिक प्रेतात्माओं के प्रति भय एवं श्रद्धा ही आदिम धर्म का मूल है। अतः यह धारणा विकसित हुई कि आत्माएं मानव नियंत्रण से परे हैं, परन्तु ये मनुष्य से संबंध रखती है। इसके अच्छे कार्यों से ये प्रसन्न होती है, तथा बुरे कार्यों से अप्रसन्न होती है।

 

 

 

प्रस्तावना

धर्म के उत्पत्ति का मुख्य कारण मनुष्य का सत्य को जानने की प्रवृत्ति के कारण हुआ और चूंकि सत्य को समझने की मानववृत्ति एक जन्मजात वृत्ति है, इसलिए यह जानने का कोई कारण दिखाई नहीं देता कि उसका प्रारंभ मानव इतिहास में काफी समय बाद हुआ। आदिम काल में मनुष्य ने प्रकृति के कार्यो को समझने का प्रयास किया होगा। यदि आज विज्ञान का युग है तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि विज्ञान आदिम काल में रहा नहीं होगा। बिना बीज के वृक्ष कैसे उत्पन्न हो सकता है? पुरातन युग में भी कोई दार्शनिक या वैज्ञानिक रहे होंगे ही जिन्होनें प्रकृति के विभिन्न कार्य-कलापों को समझने का प्रयास किया होगा। सही बात तो यह है कि धर्म मानव जीवन की सहजवृत्ति है। धर्म की उत्पत्ति के किए हमें मानव प्रकृति को ही आधार मानना होगा, क्योंकि परिवर्तन होने के बाद भी मानव प्रकृति में एक अविच्छिन्नता की जाती है। जिस तरह आज का मानव सुख-दुख का अनुभव करता है, क्रोध और द्वेष का शिकार है, भूख और प्यास को अनुभव करता है, उसी तरह आदिमानव भी करता था।

 

 

इसलिए जिस तरह आज मनुष्य ईश्वर को या ईश्वर के समकक्ष किसी सिध्दांत को सहज रूप से स्वीकार करने के लिए तत्पर रहता है उसी प्रकार की तत्परता आदिम काल के मानव में भी विधमान रही होगी।

 

धर्म की उत्पत्ति के विषय में धर्म दर्शन एवं मानवशास्त्र की दृष्टि से उन बातों का पता लगातें है कि मानव समाज मेें धर्म कब और किस प्रकार उत्पन्न हुआ ? इस तथ्य का पता लगाने के साथ ही निश्चित रुप से आदिम मानव समाज के विषय में विचार करना आवश्यक होता है

 

धर्म दर्शन एवं मानवशास्त्र इन प्रश्नों पर निम्नलिखित विषयों से विचार करता है -

(1) प्राचीन सिद्धांत -

(2) मानवशास्त्र की दृष्टि से -           

(3) मनोवैज्ञानिक दृष्टि से -

(4) ऐतिहासिक विधि द्वारा-

 

मनोवैज्ञानिक विवेचना द्वारा इस बात का पता लगाया जाता है कि मानव मन में धर्म की उत्पत्ति कैसे और किन-किन कारणों से हुई ? मानव में सर्वप्रथम किन प्रवृत्तियों इच्छाओं संवेगो तथा प्रेरणाओं के कारण धर्म की भावना जागी जिसके कारण मनुष्य धर्म की ओर उन्मुख हुआ।

 

इसी प्रकार ऐतिहासिक दृष्टिकोण से इस बात का पता लगाया जाता है कि धर्म का प्रादुर्भाव कब और किन-किन रुपों में हुआ था तथा इसके विकास की क्या गतिविधि रही ? इसमें संदेह नही कि धर्म की उत्पत्ति एवं विकास का वैज्ञानिक अध्ययन आधुनिक विज्ञानों जैसे- मानवशास्त्र , मनोविज्ञान तथा ऐतिहासिक पर्यप्रेक्षण द्वारा सम्भव हुआ और इन अध्ययनों के आधार पर ही कुछ सिध्दांतो का प्रतिपादन भी हुआ, परन्तु इन सिध्दांतों के पहले भी कुछ सिध्दांत प्रचलित थे जो कि अब इतने प्रचलित नही है इन प्राचीन सिध्दांतो से भी धर्म की उत्पत्ति पर पर्याप्त मात्रा में प्रकाश डाला गया था। सर्वप्रथम इन प्राचीन सिध्दांतो पर ही विचार कर लेना ठीक होगा

 

धर्म के उत्पत्ति के प्राचीन सिध्दांत

() दैवीय प्रकाशना का सिद्धांत (ज्ीमवतल िकपअपद तमअमसंजपवद):- इस मत के अनुसार स्वयं ईश्वर ने ही अपने विशेष कृपा से मानव हितों के लिए धर्म का प्रकाशन अवतार एवं पैगम्बर इत्यादि के माध्यम से किया है। इसलिये मानव जीवन में धर्म का आरंभ हो गया। धर्म की उत्पत्ति के विषय में यह सिद्धांत अधिकांश रूप से यह सिद्धांत यहूदी एवं इसाई तथा इस्लाम में पाया जाता है। इसका प्रमाण इन धर्मों के शास्त्रों के रूप में मिला है।

 

() मानवीय विवेक सिद्धांत (ज्ीमवतल िभ्नउंद तमवेवद):- इस सिद्धांत के अनुसार धर्म की उत्पत्ति मानवीय विवेक से हुई है। इसका अर्थ यह है कि मानवीय विवेक या बुद्धि में धर्म जन्म-जात रूप में होता है। चूंकि इस बात के पोशक 18 वीं शताब्दी के कुछ ब्रिटिश बुद्धिवादी जैसे- हर्बर्ट और जान हालैण्ड (1855) आदि थे। इसलिए इन्होंने धर्म को बुद्धिगत माना और गणित के प्रत्ययों के समान धर्म के प्रत्ययों जैसे-ईश्वर की सत्ता आत्मा की अमरता तथा नैतिक नियमों की शक्ति की सत्यता को तर्क पर आश्रित माना। ये बुद्धिवादी देववाद के पोशक थे। इनके मत में दैवी प्रकाशनों का सिद्धांत सार्थक है। इनके अनुसार सभी धर्म प्रारंभिक अवस्था में बौद्धिक होने के कारण शुद्ध थे। अब प्रश्न यह है कि यदि प्राकृतिक या प्रारंभिक अवस्था में बौद्धिक होने के कारण धर्म पूर्ण रूप से मानवीय बुद्धि या विवेक पर ही आधारित था। तो धर्म में आडंबर, अंधविश्वास, कर्मकाण्ड और रूढ़ियां क्यों दृष्टिगोचर होती है? इसके उत्तर में विचारकों का कहना है कि पुरोहितों ने जब समूह को अपने नियंत्रण में रखने हेतु तथा उनका शोषण करने के लिए ही शुद्ध और तर्कपूर्ण धर्म में अंधविश्वास, कर्मकाण्ड आदि का अनुप्रवेश कराया। इस आधार पर धर्म का दो रूपों में विकास हो गया- प्रथम शुद्ध प्राकृतिक ऐतिहासिक धर्म। इस ऐतिहासिक धर्म और दूसरा पुरोहितों की इच्छानुसार प्रचलित धर्म में पाए जाने वाले, विश्वास एवं व्यवहार मिथ्या एवं निरर्थक प्रतीत होते हैं। क्योंकि इन विकसित धर्मों में पाए जाने वाले समस्त विश्वास और कर्मकाण्ड मानवीय स्वार्थ में आरोपण मात्र है। धर्म का वास्तविक रूप तो प्राथमिक धर्म है जो तर्क के प्रारंभ से ही तर्क के विवेक पर आधारित है। धर्म के वास्तविक रूप के समर्थन में 18वीं शताब्दी के अंत में फ्रांस के कुछ विचारक लेमेंड्डै डी. एलेम्बर्ट तथा वाल्टेयर भी थे। अपने युग में यह सिद्धांत चाहे बहुत ही प्रचलित रहा हो परन्तु इस समय यह लुप्तप्राय ही है क्योंकि इनमें अनेक दोष थे -    

 

धर्म की उत्पत्ति संबंधि मानवशास्त्री सिद्धांत (।दजीतवचवसवहपबंस ज्ीमवतल ) - जहां मनोविज्ञान धर्म के आंतरिक पक्ष को अभिव्यक्त करता है वहीं मानवशास्त्र धर्म के बाह्य पक्ष को उजागर करता है। धर्म का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना मानव का इतिहास। मानव की सभ्यता और संस्कृति का विवरण प्रस्तुत करना मानवशास्त्र का प्रमुख विषय है। सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ धार्मिक भावना भी विकसित होती रही है। धार्मिक भावना की उत्पत्ति किन परिस्थितियों में हुई? मानवशास्त्र ही इसका समुचित उत्तर दे सकता है। प्राचीन और आधुनिक धर्मों की प्रकृति में अंतर स्पष्ट करने का श्रेय मानवशास्त्र को है। धर्म की उत्पत्ति के संबंध में मानवशास्त्र निम्नलिखितमतप्रस्तुत करता है-

     1. जीववादी सिद्धांत

     2. प्रेतवादी सिद्धांत  

     3. मानववाद या पूर्व जीववादी सिद्धांत 

     4. टोटमवाद सिद्धांत

     5. जादू सिद्धांत

     6. फेतिशवाद सिद्धांत

 

जीववादी सिद्धांत (।दपउपेजपब ज्ीमवतल ) - मानवशास्त्री दृष्टि से जीववादी सिद्धांत का प्रतिपादन   .बी. टाॅयलर (1871) ने किया। उसने आदिम संस्कृति (च्तपउपजपअम बनसजनतम) नामक एक महान् ग्रंथ की रचना ही। आदिम मानव की बुद्धि स्वाभाव का वैज्ञानिक अध्ययन करके उसने जीववाद का प्रतिपादन किया। इस सिद्धांत के अनुसार विश्व की समस्त वस्तुओं में आत्मा जीव का निवास है। मानव सब वस्तुओं में आत्मा के अस्तित्व स्वीकार करने लगता है। अपने ही चेतना का आरोपण संसार की समस्त वस्तुओं में करने लगता है। टाॅयलर (1871) का यह विचार है कि संस्कृति जिस स्तर पर जीववाद दृष्टिकोण का उद्भव होता है। उसी समय धर्म की उत्पत्ति उसी स्तर पर होती है। ऐसी अवस्था में मानव अपने और जगत में व्याप्त जीवों के मध्य सामन्जस्य स्थापित करता है। कुछ शक्तिशाली जीवों की आराधना वह अपनी सुरक्षा और कल्याण के लिए करना प्रारंभ करता है।

 

प्रेतवादी सिद्धांत  (ैचतपजपबपेउ ज्ीमवतल) -  प्रेतवादी सिद्धांत का समर्थक हरबर्ट स्पेन्सर (1855) है। स्पेन्सर का यह मत है कि आदिम मानव प्रारंभ में अपने पूर्वजों की उपज की कल्पना परमात्मा के कारण करता था और उसी के फलस्वरूप धर्म की उत्पत्ति हुई। आदिम युग के मानव में यह धारणा थी कि उसके पूर्वजों अस्तित्व मृत्यु के पश्चात प्रेतात्मा के रूप में रहता है। उसकी यह भी धारणा थी कि प्रेतात्मा के रूप में उनके पूर्वजों की शक्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है और वे अप्रसन्न होकर क्षति पहुंचा सकते हैं। इन पूर्वजों को प्रसन्न रखने के लिए ही आदिम मानव यज्ञ, बलि, पूजा आदि की क्रियाएं करता था। उसके इन कार्यकलापों के फलस्वरूप ही पूजा पद्धति और कर्मकाण्ड का विकास हुआ इस संबंध में यह प्रमाण दिया जाता है कि आज की अनेक समुदाय प्रेतात्मा में विश्वास करते हैं और उसे प्रसन्न करने के लिए पूजा, हवन आदि क्रियाएं की जाती है। स्पेन्सर का यह विचार है कि प्रेतात्मा की पूजा ही धर्म का आदिम प्राचीनतम् रूप है। धार्मिक प्रार्थना एवं पूजा में भय की साधना कार्य करती थी। पूर्वजों में अपनी कामना की सिद्धि प्राप्त करना भी आदिम मानव का लक्ष्य माना जाता है। स्पेन्सर का विचार है कि जीववाद धर्म का आरंभिक रूप नहीं हैं, बल्कि वास्तव में जीववाद प्रेत सि़द्धांत पर आधारित है क्योंकि जीववाद में सर्वात्मभाव उसी प्रेत सिद्धांत से प्रकट हुआ प्रतीत होता है। यह बात इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि जीववाद में किसी विशेष प्रेतात्मा की पूजा इस हेतु होती थी कि उस आत्मा में विशेेष शक्ति है और वह मानव को क्षति पहुंचा सकता है। प्रेतवाद का अस्तित्व लगभग सभी प्राचीनतम् धर्मों में प्राप्त होता है। हिन्दू धर्म में तो आत्मा की अमरता की चर्चा सर्वत्र की गई है। कल्पनाओं के आधार पर कालांतर में इन प्रेतों (आत्माओं) को स्वामी के रूप में मानकर सर्वशक्तिमान ईश्वर की कल्पना कर ली गई होगी। इस्लाम और ईसाई धर्म में भी प्रेतात्माएं (रूहों) के रूप में दिखाई पड़ती है। बौद्ध धर्म की जातक कथाओं में इस बात का उल्लेख है कि गौतम बुद्ध की प्रेतात्मा  विभिन्न योनियों में उत्तपन्न होकर अनुभव प्राप्त करती है।

 

मानावाद या पूर्व जीववादी सिद्धांत (डंदंपेउ ज्ीमवतल ) - इस सिद्धांत के अनुसार ‘‘माना‘‘ नामक रहस्यवादी शक्ति की आराधना या उपासना का विषय माना जाता है। अत्यंत प्राचीन काल से मनुष्य ‘‘माना‘‘ को सबसे अधिक शक्तिण् शाली आदि सत्ता के रूप में स्वीकार करता रहा है। इसकी कल्पना वैदिक धर्म ‘‘परमब्रम्हा‘‘ की कल्पना जैसी ही है। ‘‘माना‘‘ को मानव जीवन के सुख-दुख, हर्ष-विग्रह, विजय-पराजय का स्वामी माना जाता है। मानव के कार्यों का शुभ या अशुभ उस पर ही आधारित था। माना एक ऐसी रहस्यमयी शक्ति है जिसकी व्याख्या करना संभव नहीं है। वह एक सर्वव्यापी अद्भूत अतिन्द्रीय शक्ति है तथा भौतिक वस्तुओं के माध्यम से प्रगट होता है। यह रहस्यमयी अलौकिक शक्ति भौतिक होकर मानसिक या आत्मिक है। उसकी शक्ति सभी वस्तुओं में व्याप्त है परन्तु कुछ पदार्थों में वह विशेष रूप से निहित है। यह शक्ति शुभाशुभ के सभी कार्यों में कार्य करती है उसका उपयोग शत्रुओं को हानि पहुंचाने और मित्रो के काल्याण हेतु किया जाता हैं।माना मे गतिशीलता है क्योंकि उसे एक शक्ति माना गया है , जैसे बिजली एक शक्ति है और उसका संचार होता है वैसे ही ‘‘मानाका संचार एक वस्तु से दूसरी वस्तु ईश्वरीय श्रद्धायुक्त, भय, स्तब्धता आदि का स्पष्ट संकेत मिलता है। ‘‘माना‘‘ को अधिक संवेगशील माना गया हैै और उसके संबंध में यह किवंदती प्रचलित है कि जिस डाल पर ‘‘माना‘‘ की शक्ति से युक्त पक्षी बैठती है उसमें फल आते हैं। ‘‘माना‘‘ का ताबीज पहनने वाले के पास कोई दुःख नहीं आता जिस फुलबाड़ी में माना का निवास होता है उसमें फूलों की भरमार होती है। ‘‘ माना‘‘ के प्रभाव से समुद्र में नौकाओं की गति तीव्र हो जाती है और मछुआरा आराम से मछली पकड़ता है।

 

इस प्रकार ‘‘माना‘‘ आदिममानव की आराधना का केंद्र बन गया। ‘‘माना‘‘ का कोई मानवीय अस्तित्व नहीं है और उसके प्रतिनिधि पुजारी और पादरी आदि हैं। इन व्यक्तियों में ‘‘ माना‘‘ शक्ति का निवास रहता है और वह शक्तिशाली पुरूष माना जाता है। प्रारंभिक धर्म के दो भावात्मक और निषेधात्मक हैं। जिसमें ‘‘माना‘‘ भवात्मकटैबूनिषेधात्मक है। ‘‘माना‘‘ के आधार परटैबूकी उत्पत्ति हुई। ‘‘माना‘‘ रहस्यमयी, अलौकिक और विलक्षण शक्ति माना जाता था।  इसका प्रयोग बड़ी सावधानी से करना होता है, और इस हेतु आदिममानव ने कुछ निषेध का प्रचलन किया जिन्हेंटैबूकी संज्ञा दी गई। टैबू के फलस्वरूप ही मानव ने व्यक्ति को बहुत से  पशुओं से अलग रखने का विधान किया है। शव, नवजात शिशु, राजा और मुखिया टैबू माने जाते थे, और इनके स्पर्श का निशेध था। शव स्पर्श करने वाले को भी अदृश्य माना जाता था। शुद्धि कर्म के पश्चात् अंतिम क्रिया करने वाले को ही समाज में प्रवेश की अनुमति थी। राजा और पुजारी तथा मुखिया या योद्धाओं को अदृश्य इसलिए माना जाता कि उसमें ‘‘माना‘‘ नामक शक्ति नहीं रह जाएगी।

 

टोटमवाद सिद्धांत (ज्वजमपेउ ज्ीमवतल) -  ‘‘टोटमवाद‘‘ के प्रवर्तकों में सिगमण्ड फ्रायड (1938) डब्लू.राबर्टसन् स्मिथ और एफ.बी.जेवन्स (1913) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन लोगों की मान्यता हैै कि टोटमवाद आदिमधर्म है और इससे धर्म की उत्पत्ति हुई है। ‘‘टोटम‘‘ के प्रति मानव आदर और श्रद्धा का भाव प्रकट करता था। इन लोगों की धारणा थी कि उनका विकास टोटमवाद के फलस्वरूप हुआ है। ‘‘टोटम‘‘ को आदिममानव अपने वंशजों का प्रतिक मानते थे। टोटम का बोध विकास से नहीं बल्कि जाति से होता था। आदिममानव की प्रत्येक टोली अपनी टोटम से आबद्ध रहती थी और यह टोटम उस टोली का प्रतीक होता था। इसी से उसका विशिष्ट काम भी पड़ता था। यह टोटम जातियां टोटम को अपनी टोली का संरक्षक मानते थे।  यदि किसी जाति या टोली का सांप टोटम होता तो वह जाति ‘‘ सर्पटोटम‘‘ होती थी और यह मान्यता थी कि सांप उसे कभी भी नहीं कांटता उस जाति के व्यक्तियों की रक्षा करता है।

 

टोटमवाद में यह भी देखा जाता है कि प्रत्येक जाति के सदस्य (डमउइमतद्ध अपने को एक सामान्य पूर्वज की संतति मानते थे और उस जाति के व्यक्तियों के बीच भातृभाव की भावना रहती थी। उस जाति के प्रत्येक सदस्य अपने टोटम को पवित्र मानता था। अधिकतर वे अपनी जाति के पशु का मांस भक्षण नहीं करते थे। परन्तु जब विशेष उत्सवों में टोटम पशुओं की बलि दी जाति थी तो उस पशु का मांस प्रसाद के रूप में भक्षण होता था। बलि के समय टोटम पशु से क्षमा मांगना और बलि के पश्चात् शोक प्रकट करने की भी मान्यता प्रचलित थी। यह मान्यता थी कि पशु का मांस भक्षण करने के पश्चात् मनुष्य में उस टोटम पशु की शक्ति जाति थी। इस दंत कथा के आधार पर ही कुछ विचारकों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि उससे  धार्मिक अनुभूति का विकास हुआ है। इसी फलस्वरूप अंतः शोधन और प्रायश्चित की भावना उत्पन्न हुई। कुछ विद्वानों ने टोटम को सामाजिक व्यवस्था की अपेक्षा धार्मिक व्यवस्क्था माना है और इसी आधार यह धर्मों को टोटमवाद की स्थिति से गुजरना पड़ता है।

 

जादू सिद्धांत (डंहपब ज्ीमवतल ) -  अनेक मानवशास्त्रीयों का विचार है कि धर्म की उत्पत्ति जादू से हुई है जादू एक विशेष प्रकार की चमत्कार है जिसके द्वारा लोगों को अपनी ओर प्रभावित किया जा सकता है विद्वान जादू को धर्म मानते है परन्तु अन्य उसे धर्म का विकृत रुप मानते है। उस संबंध में निश्चित रुप से कुछ भी नही कहा जा सकता कि जादू पहले हुआ या धर्म परन्तु इतना अवश्य माना जा सकता है कि जादू किसी किसी रुप में धर्म के अंग के रुप में अवश्य विद्यमान रहता है फ्रेजर का मत है कि जादू से धर्म का विकास हुआ है धर्म और जादू का संबंध अति प्राचीन है प्राचीन धर्माे में धार्मिक चमत्कारों पर अधिक बल दिया जाता था मानव को अपनी ओर खीचने के लिए विभिन्न सम्प्रदायों के सिद्ध, फकीर, आदि चमत्कारियों का सहारा या आश्रय लेते थे

 

फेटिशवाद सिद्धांत (थ्ंजपेीपेउ ज्ीमवतल) -फेटिश एक जड़ पदार्थ है, जिसमें आत्मा या शक्ति का वास है। फेटिश पुर्तगाली भाषा के फाइटिकों से बना है जिसका अभिप्राय है आकर्षण या रमणीयता। फेटिशवाद का सर्व प्रथम प्रयोग 15वीं शताब्दी में पुर्तगाल के निवासियों द्वारा किया गया। नाविक अपनी समुद्री यात्रा प्रारंभ के पूर्व शक्तिमानफेटिशकी आराधना करते थे। उनके विचार से यदि फेटिश की आराधना करते हैं तो मार्ग में किसी तरह के तूफान बी बाधा उत्पन्न नहीं होती। वे लोग अपने लिए जिसे शक्तिशाली समझते थे, उसे फेटिश कहकर उसकी पूजा करते थे। फेटिशवाद के अंतर्गत गुफा, कन्दरा, पर्वत, नदी आदि की पूजा उन्हें शक्तिशाली मानकर की जाती थी। प्रकृति कीमानाशक्तियों तथा इन्द्रधनुष, बिजली, नदी, तूफान, बाढ़, भूकंप आदि को फेटिश मानकर आराधना की जाती थी और उसकी उपासना की जाती थी। फेटिशवाद का चमत्कार समाप्त हो जाने पर उसकी शक्ति समाप्त समझ ली जाती थी और उसकी उपासन बन्द कर दी जाती थी।

 

धर्म की उत्पत्ति का मनोवैज्ञानिक सिद्धांत - धर्म की उत्पत्ति संबंधी मनोवैज्ञानिक अवधारणा के अंतर्गत मनोवैज्ञानिक सिद्धांत पर प्रकारान्तर में प्रकाश डालते हुए विभिन्न विद्वानों ने धर्म की उत्पत्ति को मनोवैज्ञानिक-जैविक प्रक्रियाओं द्वारा समझाने का प्रयास किया है। कुछ लोगों के अनुसार धर्म का उद्भव मनुष्य को भय के कारण हुआ। इस संदर्भ में प्रसिध्द मानवशास्त्री मैलीनोवस्की (1926) के अनुसार धर्म भाव विशिष्ट भावात्मक परिस्थितियों में जन्मा और सक्रिय हुआ पर फ्रायड के अनुसार धर्म ग्लानि की भावनाओं के कारण उत्पन्न होता है। आज का मानव आदिम मानव के ही मन, बुद्धि तथा शरीर को धारण करता है। प्राचीन से नवीन का विकास होता है। बुद्धि तथा शरीर के साथ धार्मिक विचार भी पीढ़ी दर पीढ़ी संक्रमित होते रहते हैं। हमारे आधुनिक धार्मिक मूल्य, संस्कार, प्रवृत्तियां और व्यवहार आदिम धर्म के ही परिमार्जित रूप हैं। मानव को धार्मिक बनाने में निम्नलिखित मनोवैज्ञानिक तत्व की प्रमुख भूमिका देखी जा सकती है:-

 

1. धार्मिक प्रवृत्ति जन्मजात है। मनुष्य में जन्म से ही धर्म की ओर प्रवृत्त होनेे की महती उत्कण्ठा देखी जाती है। अन्य मूल प्रवृत्तियों की तरह मानव मन में धर्म की मूल प्रवृत्ति भी सहज रूप में विद्यमान है, जो मनुष्य को धार्मिक आचरण करने की प्रेरणा देती रहती है। जैसे भूख लगने पर भोजन और प्यास लगने पर पानी आवश्यक है, वैसे आध्यात्मिक भूख को शांत करने के लिए धर्म अपेक्षित है।

 

2. मानसिक क्रिया बिना शक्ति के प्रकाश में नहीं सकती है। संवेग, संकल्प, ध्यान, स्मृति, कल्पना, अनुभूति आदि मन की शक्तियां है। धर्म भी मानव-मन की एक शक्ति है, जिसके आधार पर मनुष्य धार्मिक बनता है।

 

3. धर्म के उत्पत्ति के मूल में कोई विशिष्ट मानसिक तत्व नहीं हैं, जो ज्ञान भाव और क्रिया से पृथक किया जा सके। मानव-मन ज्ञान भाव और क्रिया से युक्त है। धार्मिक व्यवहार में भी उक्त तीन तत्व कार्य करते हैं। धार्मिक अनुभूति भाव प्रधान है। ज्ञान और क्रिया की अपेक्षा धर्म के संदर्भ में भाव की महत्वपूर्ण भूमिका है। मानसिक भाव ही धर्म की उत्पत्ति का एकमात्र कारण है। अतः धर्म की उत्पत्ति के मूल में मनोवैज्ञानिक भाव को देखता है।

 

4. धर्म की उत्पत्ति भय-भावना से हुई - टाॅयलर (1871) का विश्वास था कि आत्मा की धारणा ‘‘जीव‘‘ की धारणा  से उत्पन्न होती है, और आत्मा में विश्वास ईश्वर की अवधारणा में परिवर्तित हो जाता है। टायलर के समकालीन विचारकों ने धर्म के इस दृष्टिकोण को स्वीकार किया। ह्यूम भय को ही धार्मिक क्रियाओं का प्रेरक-तत्व स्वीकार करता है। आदिम काल में व्यक्ति अशुभ प्रेतात्माओं से भयभीत होकर उनकी पूजा-अराधना करता था और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए वह धार्मिक क्रियाओं का संपादन करता था। उसे विश्वास था कि प्रेतात्मा के संतुष्ट होने पर उसकी प्रवृत्तियां शांत होंगी और वह सुखमय जीवन बीता सकेगा।

 

5. आध्यात्मिक असंतोष से धर्म की उत्पत्ति हुई। आदिम मानव अनेक आवश्कताओं और समस्याओं से घिरा हुआ था। पग-पग पर उसे खतरा, असुरक्षा और अपूर्णता की अनुभूति होती थी। अपने आवश्यकताओं को संतुष्ट करने हेतु वह अतिन्द्रिय शक्तिमाना‘  में विश्वास करता था। और उसकी पूजा आराधना करके अपनी मूल प्रवृत्तियों को शांत करने का प्रयास करता था। आज भी धार्मिक व्यवहार के पीछे मानव की यही भावना कार्यरत है।

 

6. यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि संवेग इसलिए उत्पन्न होता है कि वह क्रिया में प्रगट हो। निष्क्रिय संवेग अर्थहीन है। धर्म वह संवेग है जो बाह्य अभिव्यक्ति की मांग करता है। धार्मिक पंथ, संस्था, संस्कार, कर्मकाण्ड और देवालय इत्यादि धार्मिक संवेग की बाह्य अभिव्यक्तियां। धार्मिक संवेग मनोवैज्ञानिक के अध्ययन का विषय है। इस प्रकार धर्म की उत्पत्ति को बताने में मनोविज्ञान की सशक्त भूमिका है।

 

7, ‘जीने की इच्छासे जानने की इच्छा उत्पन्न हुई। प्रकृति की विचित्र घटनाओं और जीवन में परिव्याप्त दुःख को सर्वत्र देखकर मानव में अनायास ही जानने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। यही इच्छा धर्म को जन्म देती है। धर्म यह दुःख दर्द में पिसते हुए अस्तित्व को कायम रखने का उपक्रम है। मानव मन में ज्ञान-जिज्ञासा कैसे उदीप्त होती है। इस समस्या का समाधान मनोविज्ञान करता है। अतः धर्म की उत्पत्ति को समझाने में मनोविज्ञान का विशेष योगदान रहा है।

 

धर्म की उत्पत्ति एवं विकास की ऐतिहासिक विधि - मानव-संस्कृति के उत्थान में धर्म की प्रमुख भूमिका रही है। प्रो. एटकिन्सल ली (1951) के अनुसार , धर्म के विकास की चार अवस्थाएं है:- 1. प्रारंभिक धर्म, 2. प्राकृतिक धर्म,  3.मानवीय धर्म,  4. आध्यात्मिक धर्म। प्रो. गैलवे (1922) ने धर्म के विकास क्रम में केवल तीन अवस्थाओं को स्वीकार किया है- यथा 1. जातीय धर्म या आदिम धर्म, 2. राष्ट्रीय धर्म, 3.विश्वव्यापी धर्म। ज्यों-ज्यों मानव की वैचारिक शक्ति समुन्नत और समृद्ध होती गई, त्यों-त्यों धर्म का स्वरूप भी उत्तरोत्तर निखरता गया। आदिम धर्म जंगली जातियों की देन है। इसलिये यह धर्म विवेक-शून्य हैं, अंधविश्वास और रूढ़ियों का जमघट है। आदिमकाल में मनुष्य पशुवत, जीवन-यापन करता था। जानवरों का शिकार करके वह अपना पेट भरता था। दैनिक आवश्यकताओं की संतुष्टि के अलावा उसके पास सोंचने-विचारने की कोई विषय-वस्तु नहीं थी। हिंसकपशुओं, खूंखार मनुष्यों आदि से बचने के लिए वह टोली अथवा समूह में रहना पसंद करता था। जैसे उनका रहन-सहन था, वैसे उसका धर्म भी था। प्राकृतिक प्रकोपों का वह भुक्तभोगी था। शिकार मिलने पर उसे पूरा दिन उपवास में काट देना पड़ता था। इन सबके मूल में वह एक ऐसी शक्ति की कल्पना करने के लिए मजबूर हो गया जो उसके-नियंत्रण से बाहर थी। जादू-टोना के माध्यम से वह उस शक्ति पर अधिकार जमा सका। असफलता की स्थिति में मजबूर होकर उसे अद्भूत शक्ति के प्रतीक के रूप में किसी वस्तु को स्वीकार करना पड़ा। टोटमवाद में टोटम-शक्ति के रूप में पशु या वृक्ष को स्वीकार किया गया। मानावाद में माना-शक्ति से युक्त ताबीज या किसी धातु में आस्था पैदा की गई। प्रेतवाद में प्रेतात्मा को अद्भूत शक्ति से युक्त प्रतीक माना गया। कालांतर में चलकर टोटम, माना, फिटिश और भूत-प्रेत के स्थान पर अनेक देवी देवताओं की कल्पना की गई। चमत्कार जादू-टोना , व्यक्तिगत शक्ति आदि के प्रति उपेक्षा का भाव जागा। बाद में चलकर देवी-देवता की धारणा तथा अनेकेश्वरवाद भी तथ्यहीन लगा। समस्त कल्पित देवी-देवताओं को एक ही सत् (परमसत्) की विविध अभिव्यक्तियों के रूप में लोगों ने स्वीकार किया। धीरे-धीरे धर्म को विज्ञान के प्रकाश में आगे बढ़ने का सुअवसर मिला। अंधविश्वास और रूढ़ियां टूटती गईं। विश्व के लोग एक-दूसरे के करीब आते गये। धर्म के नाम होने वाली हिंसात्मक घटनाएं भी कम होने लगीें। इस प्रकार एकेश्वरवार का जन्म हुआ। यह तो उपासनामूलक धर्म की एक ऐतिहासिक झांकी है। समाज में सांस्कृतिक उत्थान के साथ-साथ समाधि-मूलक धर्म का भी तेजी से प्रसार होने लगा। आध्यात्मिक मूल्यों को ईश्वर का स्थान दिया गया। समाज में मानवीय मूल्यों और नैतिक गुणों को सर्वोपरि स्थान दिया गया। ईश्वर के स्थान पर महामानव पूज्य बन गया। जैन-धर्म, बौद्ध-धर्म और अद्धैतवाद इसी कोटि के धर्म हैं। धर्म के विध्वंसात्मक रूप को देखकर समाज-वैज्ञानिकों (माक्र्स आदि) को साम्यवाद को धर्म की कोटि में रखा और ईश्वर को मृतक घोषित कर दिया। गैलवे (1922) के अनुसार धर्म के विकास का क्रम निम्नलिखित रूप से हुआः-

 

1. जातीय धर्म या आदिम धर्म - जातीय धर्म असभ्यकालीन धर्म है जो आज भी असभ्यों के बीच प्रचलित है। आदिमकाल में व्यक्ति की अपेक्षा जाति को अधिक महत्व दिया जाता था। जाति अथवा टोली द्वारा निर्धारित नियम के विरूद्ध आचरण करने वालों के लिए दण्ड का विधान था। आदिम धर्म को धर्म का आदि रूप माना जाता है। यही धर्म विकसित होने पर बाद में उपयोगी सिद्ध हुआ। पूर्वज आराधना से लोगों में नैतिक गुणों का विकास हुआ। प्राणवाद से आध्यात्मवाद का विकास हुआ और जादू-टोना से स्वाभिमान की भावना बलवती हुई। बौद्धों के हीनयान का यह विचार है कि अपनी प्रगति स्वयं करो। ‘‘ आत्मदीपों भव‘‘ इसी भावना का विकसित रूप है। जातीय धर्म में अंधविश्वास की प्रधानता थी। यह धर्म जादू-टोना के साथ मिला-घुला था और चमत्कार एवं अहंकार का अड्डा बन गया था। आदिमकाल में घटनाओं की व्याख्या का आधार वैज्ञानिक होकर धार्मिक था। उस समय आदिमानव हिंसक, स्वार्थी और नैतिक गुणविहीन था और उसका ईष्ट भी नैतिक गुण विहीन था। व्यक्तित्वपूर्ण नैतिक गुण सम्पन्न ईश्वर का सर्वथा अभाव था।

 

2. राष्ट्रीय धर्म - टोलियों के परस्पर सहयोग एवं संगठन से राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ। धर्म के विकास के इतिहास में वह धर्म के मध्य की कड़ी है। इसी भावना से एकेश्वरवाद का विकास हुआ। देवताओं को प्राकृतिक शक्तियों का अधिष्ठाता माना गया और प्राकृतिक शक्तियों में मानवीय गुणों का आरोप हुआ। समस्त देवताओं के मूल में एक ही ईश्वर को स्वीकारा गया और राष्ट्र में व्याप्त मतभेद समाप्त कर दिया गया। ईश्वर की पूजा-अभ्यर्थना प्रारंभ हुई। लोगों में श्रद्धा, विनम्रता, प्रेम और कृतज्ञता के भाव जगे। अहंकार और चमत्कार का विनाश हुआ। नैतिक गुणों की अभिवृद्धि हेतु ईश्वर की प्रार्थना प्रारंभ हुई। बहुजीववाद के स्थान पर देववाद, अहंकार के स्थान पर विनम्रभाव पूर्वजपूजा के स्थान पर ईश्वर पूजा प्रतिष्ठित हुई। ईश्वर को सर्वव्यापी, विश्वव्यापी और विश्वातित माना गया। नैतिकता और आध्यात्मिकता की जड़ मजबूत हुई। और नैतिक व्यवस्था के प्रति लोगों में आस्था जागी।

 

3. विश्व धर्म - यह आध्यात्मिक धर्म के विकास का चरम है। विश्व-धर्म जाति या राष्ट्र की सीमा से स्वतंत्र है और विश्व के समस्त प्राणीयों को समान दृष्टि से देखने का प्रयास है। यह बाह्य आडम्बर और पाखण्ड से सर्वथा मुक्त है। यह धर्म व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्व देता है। और मानवीय मूल्यों का साझादार करता है। विश्व में जहां कहीं जो कुछ भी अच्छा है, उसे बेहिचक ग्रहण कर लेता है। यह धर्म विश्व के प्रतिभा सम्पन्न महापुरूषों की नैतिकदृष्टि से समर्थित धर्म है, जो देश-काल की सीमा से  परे प्राकृतितः सार्वभौम है। यही विश्व धर्म है। यह धर्म व्यक्ति को स्वावलम्बी बनाता है और उन्हें व्यक्तिगत शक्ति का सदुपयोग करके स्वयं आगे बढ़ने का उपदेश देता हे। अतः विश्व धर्म प्रत्येक व्यक्ति को समानता के उच्च शिखर पर स्थान देता है।

 

निष्कर्ष -

धर्म की उत्पत्ति का मुख्य आधार मानव जीवन से है अर्थात जब से मनुष्य की उत्पत्ति हुई है इसके साथ-साथ ही धर्म की उत्पत्ति हुई है। मानना उचित है क्योंकि धर्म मानव जीवन में ही पाया जाने वाला एक मानवीय गुण है। ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक दृष्टिकोण से धर्म की उत्पत्ति हुई है। धीरे-धीरे इनका विकास हुआ। शुरूआत में प्राकृतिक घटनाओं और विचित्रिता के रहस्यों ने मानव जीवन को प्रभावित किया और धीरे-धीरे वे अपने अस्तित्व की रक्षा और जीवन की सुरक्षा के लिए ईश्वर रूपी अलौकिक शक्ति की कल्पना की। बाद में यही विषय धर्म बना धर्म विकास मानवीय घटनाओं एवं विचारों का प्रतिफल है। धर्म की उत्पत्ति एवं विकास के संबंध में वर्णित समस्त विचारों से यह स्पष्ट होता है। कि आदिमानव में आदिमधर्म का प्रचलित रूप हिंसक एवं डरावना था। बाद पूर्वज पूजा तथा देवपूजन जादू-टोना के रूप में व्याप्त थी। इस प्रकार धीरे-धीरेधर्मका विकास मानव के सभ्य जीवन के साथ होता गया। जिसका विकसित रूप राष्ट्रीय धर्म बना। जहां अनेक प्रकार की रूढ़ियां, परंपराएं एवं बुराईयां था। बाद में नैतिक गुणों के साथ आध्यात्मिकता की आस्था जगी, तत्पश्चात लोगों में नैतिक व्यवस्था  के प्रति आस्था जगी। अंततः आदिम धर्म से राष्ट्रीय धर्म तथा सर्वोच्च रूप से वर्तमान में विश्व धर्म के विकास का चरम रूप है। विश्व धर्म को पहचानने की क्षमता सब में नहीं है। जिसकी नैतिक-दृष्टि अथवा दिव्यदृष्टि विकसित है। वही विश्वधर्म को पहचान सकता है और उसका सदस्य बन सकता है। उपरोक्त लेख से यह ज्ञात होता है कि धर्म की उत्पत्ति एवं विकास एकाएक नही हो गया बल्कि समय के साथ मानव के व्यवहार एवं सभ्यता में धीरे-धीरे बदलाव के साथ होता गया। जो आज धर्म के वास्तविक अर्थ को व्यापक रूप में मानवीय कल्याण हेतु विकसित रूप में प्रकट हुआ, जिसका मुख्य उद्देश्य मानवीय प्रेम का संदेश हैं।

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1.      Frued, S. (1938) “Totem and Taboo”, New yark, 1938.

2.      Galloway, George (1922) “the Philosophy of Religion” Scribner, 1922.

3.      Lee, Atkinson (1951) “The Ground work of the Philosophy of Religion” Duckworth, The university of California, 1951.

4.      Muller, Max (1937) “Lecture on the Origin and Growth of Religion” The unicorn press 1937.

5.      Spencer H. The principles of psychology. London: Longman, Brown, Green, and Longmans; 1855.

6.      Tylor, Edward. 1920 [1871]. Primitive Culture. New York: J.P. Putnam”s Sons, p. 410.

 

Received on 11.12.2011

Revised on   05.01.2012

Accepted on 11.01.2012     

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Research J.  Humanities and Social Sciences. 3(1): Jan- March, 2012, 6-10